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... जैसा कर्म, वैसा फल।जगत् में यह मान्यता प्राचीनतर काल से ही चली आ रही है। शुभ तथा अशुभ कर्म करने में जीव जैसे स्वतन्त्र है, अपने कर्मों के फल भोग में भी वह वैसा ही स्वतन्त्र है। फल भोग में, अन्य किसी के अनुग्रह और निग्रह की आवश्यकता नहीं। जीव अपने वर्तमान एवं भावी का निर्माता स्वयं ही है। कर्मविज्ञान कहता है, कि वर्तमान का निर्माण भूत के आधार पर और भावी का निर्माण वर्तमान के आधार पर होता है। अतीत, वर्तमान और भविष्य की बिखरी कड़ियों को जोड़ने वाला कर्म तत्त्व ही है। ___जैन दर्शन में कर्म के दो भेद हैं-भावकर्म और द्रव्यकर्म। वस्तुतः अज्ञान, राग
और द्वेष ही कर्म हैं। राग से माया और मोह का ग्रहण होता है। द्वेष से क्रोध और मान का ग्रहण हो जाता है। स्व और पर का भेद-ज्ञान न होना, अज्ञान तथा दर्शनमोह है। सांख्य, बौद्ध और वेदान्त दर्शन में यही अविद्या के नाम से प्रसिद्ध है। यद्यपि राग-द्वेष ही पाप के प्रेरक हैं, तथापि सब की जड़ अज्ञान ही है। अज्ञानजन्य इष्ट-अनिष्ट की कल्पना के कारण, जो विकार उत्पन्न होते हैं, वे कषाय, राग एवं द्वेष कहे जाते हैं। जैन दर्शन की परिभाषा में यही भावेकर्म है, जो जीव का आत्मगत संस्कार विशेष है। आत्मा के चारों ओर तथा ऊपर-नीचे सदा विद्यमान अत्यन्त सूक्ष्म भौतिक परमाणु पुंज को जो अपनी ओर खींचता है, वह, भावकर्म है, जो परमाणु पुंज खिंचता है, वह द्रव्यकर्म है, कार्मण काय है। यही जन्मान्तर में अथवा मरणोत्तर जीवन में, जीव के साथ जाता है, और स्थूल शरीर की निर्मिति के लिए, रचना के लिए भूमिका तैयार करता है। अतः आत्मा की सत्ता में विश्वास करने वाले सभी मतों में, पुनर्जन्म एवं पुनर्भव के कारण रूप से कर्म तत्त्व को स्वीकार किया है। कर्म का स्वरूप और भेदः - लोक भाषा में कहा जाता है कि यथा बीजं तथा फलं, जिस प्रकार का बीज होता है, उसी प्रकार का उसका फल भी होता है। न्याय-शास्त्र की भाषा में इसको कार्य-कारण भाव कहना संगत होगा। अध्यात्मशास्त्र में, इसको क्रियावाद अथवा कर्मवाद कहते हैं। भगवान् महावीर अपने को क्रियावादी कहते थे। क्रिया ही कर्म बन जाती है। जो कर्मवादी होगा, वह लोक-परलोकवादी होगा। परलोकवादी आत्मवादी अवश्य होगा। कर्म-शास्त्र पर जैन विद्वानों ने पर्याप्त लिखा है, क्योंकि कर्मवाद जैनदर्शन का मुख्य विषय रहा है। आधुनिक भाषा में इसे हम कर्मविज्ञान कह सकते हैं।
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