Book Title: Kalpasutra
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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कल्पसूत्र
मूळ
।। ११ ।।
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साहरावित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता हरिणेगमेसिं अग्गाणी-आहिवइं देवं | सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी ।।सू. २०।।
एवं खलु देवाणुप्पिआ ! न एअं भूअं, न एअं भव्वं, न एअं भविस्सं, जन्नं अरिहंता वा, चक्कवट्टी वा, बलदेवा वा, वासुदेवा वा, अन्तकुलेसु वा, पन्तकुलेसु वा, तुच्छकुलेसु वा, दरिद्दकुलेसु वा, भिक्खागकुलेसु वा, किविणकुलेसु वा, माहणकुलेसु वा,
आयाइंसु वा, आयाइंति वा आयाइस्संति वा । एवं खलु अरिहंता वा, चक्कवट्टी वा, | बलदेवा वा, वासुदेवा वा, उग्गकुलेसु वा, भोगकुलेसु वा, राइन्नकुलेसु वा, नायकुलेसु
वा, खत्तिअकुलेसु वा, इक्खागकुलेसु वा, हरिवंसकुलेसु वा, अन्नयरेसु वा, तहप्पगारेसु | विसुद्ध-जाइ-कुलवंसेसु आयाइंसु वा, आयाइंति वा, आयाइस्संति वा ||सू. २१।।
अत्थि पण एसे वि भावे लोगच्छेरयभए अणंताहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहिं |विइक्कंताहिं समुप्पज्जइ नामगुत्तस्स वा कम्मस्स अक्खीणस्स अवेइअस्स अणिज्जिण्णस्स
उदएणं । जन्नं अरिहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा, वासुदेवा वा, अंतकुलसु वा, पंतकुलेसु वा, तुच्छकुलेसु वा, दरिद्दकुलेसु वा, भिक्खागकुलेसु वा, किविणकुलेसु वा,
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