Book Title: Kalpasutra
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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कल्पसूत्र
मूळ
॥६९ ॥
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सया अणुत्तरो-ववाइआणं, पन्नरस समणसया सिद्धा, तीसं अज्जियासयाइं सिद्धाई ||सू.१८०।। अरहओ णं अरिठ्ठनेमिस्स दुविहा अंतगड-भूमि हुत्था, तंजहा - | जुगंत-गड-भूमी य परिया-यंत-गड-भूमी य, जाव अठ्ठमाओ पुरिस-जुगाओ जुगंत | -गड-भूमी, दुवास परिआए अंतम-कासी ॥सू. १८१|| ते णं काले णं ते णं समए णं
अरहा अरिठ्ठनेमी तिण्णि वास-सयाई कुमार-वासमज्झे वसित्ता, चउपन्न राइदियाई | छउमत्थ-परिआयं पाउणित्ता, देसूणाई सत्त वास-सयाई केवलि-परिआयं पाउणित्ता, परिपुण्णाई सत्त वास-सयाई सामण्ण-परिआयं पाउणित्ता, एगं वास-सहस्सं सव्वाउअं पालइत्ता, खीणे वेयणिज्जा-उय-नाम-गुत्ते इमीसे ओसप्पिणीए दूसम-सुसमाए समाए बहु-विइक्कंताए जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे अठ्ठमे पक्खे आसाढ-सुद्धे, तस्स णं आसाढ-सुद्धस्स अट्ठमी-पक्खे णं उप्पि उज्जित-सेल-सिहरंसि पंचहिं छत्तीसे हिं अणगार-सएहिं सद्धिं मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं चित्ताहिं नक्खत्तेणं जोग-मुवागएणं पुव्वरत्ता-वरत्त-काल-समयंसि नेसज्जिए कालगए (ग्रंथाग्रं ८००) जाव सव्व-दुक्ख - प्पहीणे ।।सू. १८२।। अरहओ णं अरिठ्ठनेमिस्स काल-गयस्स जाव सव्व-दुक्खप्पहीणस्स
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