Book Title: Kalpasutra
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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कल्पसूत्र
मूळ
॥ ११४॥
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अठ्ठा-बंधियस्स मिया-सणियस्स आया-वियस्स समियस्स अभिक्खणं अभिक्खणं पडिलेहणा-सीलस्स पमज्जणा-सीलस्स तहा तहा संजमे सु-आराहए भवइ ।।सू. ५४।। वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तओ | उच्चार-पासवण-भूमीओ पडि-लेहित्तए, न तहा हेमंत-गिम्हासु जहा णं वासासु, से किमाहु भंते ! वासासु णं ओसण्णं पाणा य तणा य बीया य पणगा य हरियाणि य| भवंति ॥सू. ५५॥
वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तओ मत्तगाई | गिणिहत्तए, तंजहा-उच्चार-मत्तए, पासवण-मत्तए, खेल-मत्तए ||सू. ५६।। वासावासं |पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परं पज्जोसवणाओ गोलोम|प्पमाण-मित्तेवि केसे तं रयणि उवायणा-वित्तए। अज्जेणं खुर-मुंडेण वा लुक्क-सिरएण वा होइयव्वं सिया । पक्खिया आरोवणा, मासिए खुर-मुंडे, अद्धमासिए कत्तरि-मुंडे, छम्मासिए लोए, संवच्छरिए वा थेरकप्पे ॥ सू. ५७ ।। वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परं पज्जोसवणाओ अहिगरणं वइत्तए, जे णं
踪踪踪踪弦弦專班路線踪踪踪踪踪球率弦弦 弦慈益激躁
॥ ११४॥
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