Book Title: Kalpasutra
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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कल्पसूत्र
मूळ
॥ ७६ ॥
婆婆魏遊發發發發發發發發發強強強強強強強強發强强强强
कम्माणं, तिन्निवि पयाहिआए उवदिसइ, उवदिसइत्ता पुत्त-सयं रज्ज-सए अभिसिंचइ, अभिसिंचित्ता पुणरवि लोअंतिएहिं जिअ-कप्पिएहिं देवेहिं ताहिं इठ्ठाहिं जाव वग्गूहिं, | सेसं तं चेव सव्वं भाणिअव्वं, जाव दाणं दाइआणं परिभाइत्ता, जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले, तस्स णं चित्त-बहुलस्स अट्ठमी-पक्खे णं दिवसस्स पच्छिमे भागे सुदंसणाए सिबियाए सदेव-मणु-आसुराए परिसाए समणु -गम्म-माण-मग्गे जाव विणीयं रायहाणिं मझं-मज्झेणं णिगच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव सिद्धत्थवणे उज्जाणे जेणेव असोग-वर-पायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगवर-पायवस्स अहे जाव सयमेव चउ-मुठ्ठिअं लोअं करेइ, करित्ता छठेणं भत्तेणं अपाणएणं आसाढाहिं नक्खत्तेणं जोग-मुवागए णं उग्गाणं भोगाणं राइन्नाणं खत्तियाणं च चउहिं पुरिस-सहस्सेहिं सद्धिं एगं देवदूस-मादाय मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं | पव्वइए ।। सू. २१० ।।
उसमे णं अरहा कोसलिए एगं वास-सहस्सं निच्चं वोसठ्ठकाए चियत्त-देहे, जाव अप्पाणं भावेमाणस्स एगं वास-सहस्सं विइकंत, तओ णं जे से हेमंताणं चउत्थे मासे
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