Book Title: Kalpasutra
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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कल्पसूत्र
।। ३४ ।।
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उवठ्ठाण - साला जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव अंजलि कट्टु सिद्धत्थं खत्तियं जएणं विजएणं वद्धाविति ॥ सू. ६७ ।। तएणं ते सुविण -लक्खण- पाढगा सिद्धत्थेणं रन्ना वंदिअ - पूइअ - सकारिअ - सम्माणिआ समाणा पत्तेअं पत्ते पुव्व-न्नत्थेसु भद्दासणेसु निसीयंति ॥ सू. ६८ ॥ तणं सिद्धत्थे खत्तिए तिसलं खत्तियाणि जवणि-अंतरियं ठावेइ, ठावित्ता पुप्फ-फल- पडिपुण्ण - हत्थे परेण विणणं ते सुविण - लक्खण- पाढए एवं वयासी । सू. ६९ ॥ एवं खलु देवाणुप्पिआ ! अज्ज तिसला खत्तिआणी तंसि तारिसगंसि जाव सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी इमे एयारूवे उराले चउद्दस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा ॥ सू. ७० ।।
तं जहा:-गय- वसह जाव सिंहिं च गाहा । तं एएसिं चउद्दसण्हं महा - सुमिणाणं देवाणुप्पिया ! उरालाणं के मन्ने कल्लाणे फल-वित्ति-विसेसे भविस्सइ ? || सू. ७१ ॥ तए णं ते सुमिण - लक्खण - पाढगा सिद्धत्थस्स खत्तियस्स अंतिए एयमठ्ठे सोच्चा निसम्म हठ्ठतुठ्ठ जाव हियया ते सुमिणे सम्मं ओगिण्हंति, ओगहित्ता ह अणुपविसंति, अणुपविसित्ता अन्नमन्नेण सद्धिं संचालेंति, संचालित्ता तेसिं सुमिणाणं
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मूळ
।। ३४ ।।

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