Book Title: Kalpasutra
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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कल्पसूत्र
मूळ
।। ३८ ॥
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तए णं सा तिसला खत्तियाणी एयमलु सोच्चा निसम्म हठ्ठतु जाव हयहियया करयल जाव | ते सुमिणे सम्म पडिच्छइ ।। सू. ८६ | पडिच्छित्ता सिद्धत्थेणं रन्ना अब्भणुन्नाया समाणी नाणा -मणि-रयण-भत्ति-चित्ताओ भद्दासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुठित्ता अतुरिय-मचवलमसंभंताए अविलंबियाए रायहंस-सरिसीए गईए जेणेव सए भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयं भवणं अणुप्पविठ्ठा ।। सू. ८७ || जप्प-भिई च णं समणे भगवं महावीरे तंसि नायकुलंसि साहरिए, तप्पभिई च णं बहवे वेसमण-कुंड-धारिणो तिरिय-जंभगा देवा | सक्क-वयणेणं से जाइं इमाइं पुरा-पोराणाई महा-निहाणाइं भवंति, तं जहा-पहीण-सामियाई, पहीण-सेउयाई, पहीण-गोत्ता-गाराई उच्छिन्न-सामियाई उच्छिन्न-सेउयाई, उच्छिन्न- गुत्ता -गाराई, गामा-गर-नगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणा-सम-संबाह-सन्निवेसेसु, सिंघा-डएसु वा, तिएसु वा, चउक्केसु वा, चच्चरेसु वा, चउम्मुहेसु वा, महापहेसु वा, गाम-ठाणेसु वा, नगर-ठाणेसु वा, गाम-निद्धमणेसु वा, नगर-निद्धमणेसु वा, आवणेसुवा, देव-कुलेसु वा, सभासु वा, पवासु वा, आरामेसु वा, उज्जाणेसु वा, वणेसु वा, वण-संडेसु वा, | सुसाण-सुन्नागार-गिरिकंदर-संति-सेलो-वठ्ठाण-भवण-गिहेसु, वा संनिक्खि-त्ताई चिठ्ठति
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॥ ३८
॥
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