Book Title: Kalpasutra
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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कल्पसूत्र
।। ४३ ।।
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| महियं, गोसीस - सरस -रत्तचंदण - दद्दर - दिन्न - पंचंगुलि-तलं उवचिय-चंदण-कलसं चंदण-घड-सुकय-तोरण- पडिदुवार - देस भागं आसत्तोसत्त- विपुल - वट्ट-वग्घारियमल्लदाम - कलावं, पंचवण्ण - सरस - सुरहि- मुक्क - पुप्फ-पुंजो - वयार - कलियं, कालागुरुपवर-कुंदुरुक्क - तुरुक्क - डज्झत-धूव-मघमघंत-गंधु-या-भिरामं सुगन्ध-वर - गंधियं गंधवट्टि - भूयं नडनट्टग- जल्ल- मल्ल- मुट्ठिय- वेलंबग - पवग-कहग-पाढग-लासगआरक्खग-लंख-मंख - तूणइल्ल - तुंबवीणिय - अणेग - तालायराणु - चरियं करेह, कारवेह, | करित्ता कारवित्ता य जूय - सहस्सं मुसल - सहस्सं च उस्सवेह, उस्सवित्ता मम एय - माणत्तियं * | पच्च - पिह ॥ सू. १०० ॥
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तणं ते कोडुंबिय - पुरिसा सिद्धत्थेणं रण्णा एवं वृत्ता समाणा हठ्ठठ्ठ जाव हियया करयल जाव पडिसुणित्ता खिप्पामेव कुंडपुरे नगरे चारग - सोहणं जाव उस्सवित्ता जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयल जाव कट्टु सिद्धत्थस्स खत्तियस्सरणो तमा- णत्तियं पच्चप्पिणंति ।। सू. १०१ ।। तए णं से सिद्धत्थे राया जेणेव अट्टण-साला तेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव सव्वो- रोहेणं सव्वपुप्फ- गन्ध-वत्थ-मल्ला
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मूळ
।। ४३ ।।

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