Book Title: Kalpasutra
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala

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Page 49
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrm.org Acharya Shri Kalassagarsur Gyanmandir कल्पसूत्र मूळ @985 ॥ ४५ ॥ चित्रा मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणं नायए खत्तिए य आमंतेति, आमन्तित्ता तओ पच्छा पहाया कय-बलिकम्मा कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ता सुद्ध-प्पावेसाई मंगल्लाई, पवराइं वत्थाई परिहिया अप्प-महग्घा-भरणा-लंकिय-सरीरा भोयण-वेलाए भोयण-मण्डवंसि सुहासण-वरगया तेणं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि- परिजणेणं नायएहिं खत्तिएहिं सद्धिं तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभुंजेमाणा परिभाएमाणा एवं वा विहरन्ति ॥ सू. १०४ || जिमिय भुत्तु-त्तरागया वि य णं| समाणा आयंता चोक्खा परम-सुइभुया तं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणं नायए | खत्तिए य विउलेणं पुप्फ-वत्थ-गंध-मल्ला-लंकारेणं सक्कारेंति सम्माणेति सक्कारित्ता सम्माणित्ता तस्सेव मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबन्धि-परिजणस्स नायाण य खत्तियाण य पुरओ एवं वयासी ।। सू. १०५ ॥ (चिा नं. ८-९) पुद्वि पि णं देवाणुप्पिया ! अम्हं एयंसि दारगंसि गब्भं वक्तंसि समाणंसि इमे एयारूवे अब्भत्थिए जाव समुप्पज्जित्था-जप्पभिई च णं अम्हं एस दारए कुच्छिसि गब्भत्ताए वक्ते तप्पभिई च णं अम्हे हिरण्णेणं वड्ढामो, सुवण्णेणं धणेणं धन्नेणं रज्जेणं जाव सावइज्जेणं 發蛋蛋愛蛋蛋發發發發發 ॥४५॥ For Private and Personal Use Only

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