Book Title: Kalpasutra
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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कल्पसूत्र
मूळ
॥४७ ॥
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पियदसणा इ वा । समणस्स भगवओ महावीरस्स नत्तुई कासवगुत्तेणं तीसे णं दो नामधिज्जा एव-माहिज्जति, तं जहा-सेसवई इ वा, जसवई इ वा ।। सू. १०९ ।। समणे भगवं महावीरे दक्खे दक्खपइन्ने पडिरूवे आलीणे भद्दए विणीए नाए नायपुत्ते नायकुल-चन्दे विदेहे विदेह-दिन्ने विदेह-जच्चे विदेह-सूमाले तीसं वासाई विदेहंसि कटु अम्मा-पिऊहिं देवत्त-गएहिं गुरु| महत्तरएहिं अब्भणुण्णाए सम्मत्त-पइन्ने पुणरवि लोयंतिएहिं जीय-कप्पिएहिं देवेहिं ताहिं इठ्ठाहिं | जाव वग्गूहि अणवरयं अभिनन्दमाणा य अभिथुव्वमाणा य एवं वयासी ।। सू. ११० ।। (चित्र नं.१०)
जय जय नन्दा ! जय जय भद्दा ! भदं ते जय जय खत्तिय-वर-वसहा ! वुज्झाहि भगवं ! | लोग-णाहा ! सयल-जग-ज्जीव-हियं पवत्तेहि धम्म-तित्थं हिअ-सुह-निस्सेयस-करं
सव्वलोए सव्वजीवाणं भविस्सइ त्ति कटु जय-जय-सदं पउंजंति ।। सू. १११ ।। पुवि पि णं | समणस्स भगवओ महावीरस्स माणुस्सगाओ गिहत्थ-धम्माओ अणुत्तरे आहोइए अप्पडिवाई नाणदंसणे हुत्था । तए णं समणे भगवं महावीरे तेणं अणुत्तरेणं आहोइएणं नाण-दसणेणं अप्पणो निक्खमण-कालं आभोएइ, आभोइत्ता चिच्चा हिरण्णं, चिच्चा सुवण्णं, चिच्चा धणं,
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