Book Title: Kalpasutra
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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कल्पसूत्र
॥ ४२ ॥
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।। सू. ९६ ॥ जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे जाए सा णं रयणी बहहिं देवेहिं देवीहि य ओवयंतेहिं उप्पयंतेहिं य उप्पिजल-माण-भूया कह-कहग-भूया आवि हुत्था ।। सू. ९७ ।। जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे जाए तं रयणिं च णं बहवे | वेसमण- कुंडधारी-तिरियजंभगा देवा सिद्धत्थ-राय-भवणंसि हिरण्ण-वासं च, सुवण्ण-वासं च, वयर-वासं च, वत्थ-वासं च, आभरण-वासं च, पत्त-वासं च, पुप्फ-वासं च, फल-वासं च, बीय-वासं च, मल्ल-वासं च, गंध-वासं च, चुण्ण-वासं च, वण्ण-वासं च, वसुहार-वासं च वासिंसु ॥ सू. ९८ । (चित्रा नं. ७) तए णं से सिद्धत्थे खत्तिए भवणवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिएहिं देवेहिं तित्थयर-जम्मणा-भिसेय-महिमाए कयाए समाणीए पच्चूस-काल-समयंसि नगर-गुत्तिए सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी ।। सू. ९९ ।। खिप्पामेव भो देवाणप्पिया ! खत्तिय-कंडग्गामे नगरे चारग-सोहणं करेह, करित्ता माणुम्माण- वद्धणं करेह, करित्ता कुंडपुरं नगरं सब्भितर-बाहिरियं आसिअ-संमज्जिओ-वलित्तं सिंधाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु सित्त-सुइ-सम्मठ्ठ-रत्थंत-रावणवीहियं, मंचाइमंच-कलियं, नाणाविह-राग-भूसिय-ज्झय-पडाग-मंडियं, लाउ-लोइय
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