Book Title: Kalpasutra
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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॥ १८॥
कल्पसूत्र || कयंबिअं वरोरुं १ ॥सू. ३३।। (चिा नं. ३)
तओ पुणो धवल-कमलपत्त-पयरा-इरेग-रूवप्पभं, पहा-समुदओवहारेहिं सव्वओ चेव दीवयंतं, अइसिरि-भर-पिल्लणा-विसप्पंतकंत-सोहंत-चारु-ककुहं, तणु- सुद्ध|| सुकुमाल-लोम-निद्धच्छविं, थिरसुबद्ध-मंसलो-वचिअ-लठ्ठ-सुविभत्त-सुंदरंगं, पिच्छइ, | घण-वट्ट- लठ्ठ-उक्किठ्ठ-विसिठ्ठ-तुप्पग्ग-तिक्ख-सिंगं, दंतं, सिवं, समाणसोहंत-सुद्धदंतं, | |वसह, अमिअ-गुण-मंगल-मुहं २ |सू. ३४।।
तओ पुणो हारुनिकर-खीरसागर-ससंककिरण-दगरय-रयय-महासेल-पंडुरतरं | (ग्रंथानं २००) रमणिज्ज - पिच्छणिज्जं, थिर-लठ्ठ - पउठ्ठ - वट्ट - पीवर - सुसिलिठ्ठ-विसिठ्ठ-तिक्ख-दाढा-विडंबिअ-मुहं, परिकम्मिअ-जच्च-कमल-कोमलपमाण-सोभंत-लठ्ठउठं, रत्तुप्पल-पत्त-मउअ-सुकुमाल-तालु-निल्लालि-अग्गजीहं, | मूसागय-पवर-कणग-ताविअ-आवत्ता-यंत-वट्ट- तडिय - विमल - सरिस-नयणं, विसाल-पीवर-वरोरुं, पडिपन्न-विमल-खंध, मिउ-विसय-सुहम -लक्खण -पसत्थ - विच्छिन्न -केसराडोव- सोहिअं. ऊसिअ-सुनिम्मिअ- सुजाय-अप्फोडिअ-लं
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॥ १८॥
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