Book Title: Kalpasutra
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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कल्पसूत्र
मूळ
॥ २७ ॥
सुखलाभो देवाणुप्पिए ! रज्जलाभो देवाणुप्पिए ! एवं खलु तुमे देवाणुप्पिए ! नवण्हं | मासाणं बहु-पडिपुन्नाणं अद्धठ्ठमाण-राइंदियाणं विइक्कंताणं, अहं कुलकेडे, अम्हं | कुलदीवं, कुलपव्वयं, कुल-वडिंसयं, कुल-तिलयं, कुल- कित्तिकरं कुल- वित्तिकरं,
कुल- दिणयरं, कुल-आधारं, कुल - नंदिकरं, कुल-जसकरं, कुल - पायवं, | कुल-विवद्धण-करं, सुकुमाल-पाणिपायं, अहीण-पडिपुण्ण- पंचिंदिय - सरीरं, लक्खण - वंजण - गुणोववेयं, माणुम्माण - प्पमाण - पडिपुन्न - सुजाय - सव्वंग - सुंदरंगं, ससि-सोमाकारं, कंतं, पियदंसणं, सुरूवं दारयं पयाहिसि ||सू. ५२।। | से वि य णं दारए उम्मक-बालभावे विन्नाय-परिणयमित्ते जव्वणग-मणुप्पत्ते सरे वीरे
विकंते वित्थिण्ण-विउल-बल-वाहणे रज्जवई राया भविस्सइ ।। सू. ५३ ।। तं उराला कणं तुमे देवाणु-पिआ ! जाव सुमिणा दिठ्ठा, दुच्चंपि तच्चंपि अणुवूहइ, तए णं सा | तिसला खत्तियाणी सिद्धत्थस्स रन्नो अंतिए एयमढ़ सुच्चा णिसम्म हठ्ठ-तुठ्ठ जाव हियया करयल-परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी सू. ५४ ॥ एयमेयं सामी ! तहमेयं सामी ! अवि-तहमेयं सामी ! असंदिद्ध-मेयं
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॥ २७॥
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