Book Title: Kalpasutra
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala

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Page 30
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kabatirth.org Acharya Shri Kalassagarsur Gyanmandir कल्पसूत्र . मूळ ॥ २६ ॥ 寧寧華華職率 सुहासण-वरगया सिद्धत्थं खत्तियं ताहिं इठ्ठाहिं जाव संलवमाणी संलवमाणी एवं वयासी ॥ सू. ४९ ।। एवं खलु अहं सामी ! अज्ज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि वण्णओ जाव पडिबुद्धा, तं जहा-गय-वसह जाव सिहिं च-गाहा ॥ तं एएसिं सामी ! उरालाणं चउदसण्हं महा-सुमिणाणं के मन्ने कल्लाणे फल-वित्ति-विसेसे भविस्सइ ।। सू. ५० ॥ तए णं से सिद्धत्थे राया तिसलाए खत्तियाणीए अंतिए एयमलु सुच्चा निसम्म हठ्ठ तुट्ठ जाव हियए धाराहय-नीव-सुरहि-कुसुम-चंचु-मालइय-रोमकूवे ते सुमिणे ओगिण्हइ, ते सुमिणे ओगिण्हित्ता, ईहं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता अप्पणो साहाविएणं | मइपुव्वएणं बुद्धि-विन्नाणेणं तेसिं सुमिणाणं अत्थुग्गहं करेइ, करित्ता तिसलं खत्तियाणिं | | ताहिं इठ्ठाहिं जाव मंगलाहिं मिउ-महर-सस्सिरीयाहिं वग्गहिं संलवमाणे संलवमाणे एवं वयासी ॥ सू. ५१ ॥ उराला णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिठ्ठा, कल्लाणा णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिठ्ठा, एवं सिवा धन्ना मंगल्ला सस्सिरीया आरुग्ग - तुठ्ठि-दीहाउ-कल्लाण- (ग्रं. ३००)- मंगल्ल - कारगाणं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिठ्ठा, तंजहाः – अत्थलाभो देवाणुप्पिए ! भोगलाभो देवाणुप्पिए ! पुत्तलाभो देवाणुप्पिए ! 球球球球球球球球运或感染 For Private and Personal Use Only

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