Book Title: Kalpasutra
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala

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Page 21
________________ Shri Mahar Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailasagasul yanmandir कल्पसूत्र . मूळ ॥ १७॥ 華華森海盗藏微激賺賺賺激盪盪球球聯部部渐渐郊遊 तुरुक्क-डज्झंत-धूव-मघमघंत-गंधुधुआभिरामे, सुगंध-वरगंधिए, गंधवट्टिभूए, तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सालिंगण-वट्टिए, उभओ बिब्बोअणे, उभओ उन्नए, मज्झे | णयगंभीरे, गंगा - पुलिण - बालुआ - उद्दाल - सालिसए, उवचिअ - खोमिअदुगुल्ल - पट्ट-पडिच्छन्ने, सुविरइअ-रयत्ताणे, रत्तंसुअ-संवुडे, सुरम्मे, आइण - गरू अ-बूर-नवणीय-तूल-तुल्ल-फासे, सुगन्ध-वर-कुसुम-चुन्न-सयणोवयार - कलिए, पुव्वरत्ता-वरत्त-काल-समयंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी इमे एयारूवे उराले जाव चउद्दस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, तं जहाः-गय १ वसह २ सीह ३ अभिसेअ, ४ दाम ५ ससि ६ दिणयरं ७ झयं ८ कुंभं ९ । पउमसर १० सागर ११ | विमाण १२ भवण १२ रयणुच्चय १३ सिहिं च १४ ॥१।।सू. ३२।। तए णं सा तिसला खत्तिआणी तप्पढमयाए, चउदंत-उसिअ-गलिअ-विपुलजलहर-हार-निकर-खीरसागर-ससंककिरण-दग-रय-रयय-महासेल-पंडुरं समागय-मह अर-सुगंध-दाण-वासिअ-कपोलमुलं, देवराय-कंजर-वरप्पमाणं. पिच्छइ, सजल-घण-विपुल-जलहर-गज्जिअ-गंभीर-चारुघोसं, इभं, सुभं, सव्व-लक्खण ॥ १७ ॥ For Private and Personal Use Only

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