Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 16
________________ १८ स्वमतकी पुष्टिमें सोनगढ़ पक्षके असम्यक् प्रयत्न सोनगढ़ पक्ष के मुख्य प्रतिनिधि पं० फूलचन्द जीने तस्वचर्चा होने से पूर्व पत्रव्यवहारमें बार-बार तत्वमें वीतरागभाव अपनाने की बात लिखी थी तथा तत्त्वचर्चाके अवसरपर खानिया में सोनगढ़पक्षकी प्रेरणासे दिनांक २९-१०-६२ की पारित किया गया था कि 'तत्वचर्चा वीतरागभाव से होगी' । परन्तु तस्वचर्चा में शोनगढ़ की ओरसे जो भी प्रयत्न किये गये हैं उन्हें सम्यक् नहीं कहा जा सकता । यहाँ इसी बात को स्पष्ट किया जाता ' १. सोनगढ़ पक्षने प्रश्नों के उत्तर में यत्र-तत्र ऐसी तर्क-पद्धतिको अपनाया है जो अनुभव और इन्द्रियप्रत्यक्षके विरुद्ध होनेसे तत्व निर्णय करने में ग्राह्य नहीं मानी जा सकती है। बास्तवमे उस तर्कपद्धतिको अनुभव और इन्द्रियप्रत्यक्ष के विरुद्ध होनेसे 'तर्कपद्धति' कहना ही अयुक्त है। उदाहरणार्थ सोनगढ़पक्षने तञ्च०० ६४पर लिखा है कि "अपरपक्ष कोट पहनने की आकांक्षा रखनेवाले व्यक्तिको इच्छा और दर्जीको इच्छाके आधार पर कोटकपड़ा कब कोट बन सका यह निर्णय करके कोटकार्य में बाह्य सामग्री के साम्राज्यकी भले ही घोषणा करे । किन्तु वस्तुस्थिति इससे सर्वथा भिन्न है । अपरक्षके उक्त कथनको उलटकर हम यह भी कह सकते हैं कि कोट पहननेको आकांक्षा रखनेवाले व्यक्तिने बाजारसे फोटका कपड़ा खरीदा और बड़ी उत्सुकतापूर्वक वह उसे दर्जीके पास ले भी गया। किन्तु अभी उस कपड़ेका कोटपर्यायरूपसे परिणत होनेका स्वकाल नहीं आया था, इसलिये उसे देखते ही दर्जीकी ऐसी इच्छा हो गई कि अभी हम इसका कोट नहीं बना सकते और जब उस कपड़ेको कोटपर्याय सन्निहित हो गई तो दर्जी, मशीन आदि भी उसकी उत्पत्ति में निर्मित हो गये ।" इस कथन में जो यह तर्क उपस्थित किया गया है कि "अभी उस कपड़े कोटपर्यायरूपसे परिणत होनेका स्वकाल नहीं आया था, इसलिए उसे देखते ही दजोंकी ऐसी इच्छा हो गई कि अभी हम इसका कोट नहीं बना सकते और जब उस कपड़े की पर्याय सन्निहित हो गई तो दर्जा, मशीन आदि भी उसकी उत्पत्ति में निमित्त हो गये ।" सो यह तर्क प्रत्येक मानवके अनुभव और इन्द्रियप्रत्यक्ष दोनोंके विरुद्ध है, क्योंकि अनुभव में और देखने में यही आता है कि जबतक दर्जी और मशीन आदिका व्यपार कपड़े की कोट पर्याय के अनुकूल नहीं होता तबतक उस कपड़े कोटपर्यायका निर्माण नहीं हो सकता है और जब दर्जी और मशीन आदिका व्यापार उसके अनुकूल होने लगता है तो वह कपड़ा भी कोट पर्यायका रूप धारण कर लेता है। मैं इस बातको भो बारम्वार स्पष्ट कर चुका हूँ कि जिसे सोनगढ़पक्ष स्वकाल कहता वह कपड़े दर्जी और मशीन के व्यापार करने पर ही प्रगट होता है। उक्त तर्कको अयुक्तताको इस समीक्षा में पर विस्तारसे स्पष्ट किया गया है। पृ० १३८ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा २. सोनगढ़पक्ष ने अपरयक्ष के प्रश्नोंके जो उत्तर दिये हैं उनकी उन प्रदनोंके साथ सोनगढ़पक्ष ने संगति बिठलानेका भी ध्यान नहीं रखा है। उदाहरणार्थ - कहा जा सकता है कि सोनगढ़पक्षने प्रथम, द्वितीय और तृतीय प्रश्नों जो उत्तर दिये हैं उनको संगति उन प्रश्नोंके साथ नहीं बैठती है। इस बातको विषयपरिचय' प्रकरण में ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है । ३. सोनगढ़ पक्षने तत्वचर्चा में जानते हुए भी यत्र-तत्र अपरपक्ष के अभिप्राय के प्रतिकूल विकल्प उठाकर उनके खण्डन करनेका प्रयत्न किया है, जो असम्यक् हैं । उदाहरणार्थं त०च० पृ० ३२ पर सोनगढ़पक्ष ने लिखा है कि " अपरपशने पद्मनन्त्रिपंचविंशतिका २३, ७ का द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्' इस वचनको उद्धृत कर जो विकारको दोका कार्य बतलाया है सो यहाँ देखना यह है कि जो विकाररूप कार्य होता है चढ् किसी एक saयकी विभावपरिणति है या दो द्रव्योंको मिलकर एक विभागपरिणति है ? वह दो क्यों की मिलकर एक विभावपरिणति है यह तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि दो द्रव्य मिलकर एक कार्यको

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