Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
विषय-परिचय
१. अपरपक्ष और मोनगढ़पक्षके मध्य विवादका प्रथम विषय यह था कि जहाँ अपरपक्ष द्रव्यकर्म के उदयको संसारी आत्मा के विकारभाव और चतुर्गति भ्रमण के होने में सहायक मानता है वहाँ सोनगढ़पक्षका कहना हैं कि संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण द्रव्यकर्मके उदयके योगके बिना स्वकीय योग्यता के आधारपर स्वयं (अपने-आप ) ही होता है । द्रव्यकर्मका उदय उसमें सर्वथा अकिंचितकर ही बना रहता है इस विवादको समाप्त करनेके लिये ही वरपर पक्षने सोनगढ़पक्ष के समक्ष यह प्रश्न उपस्थित किया था कि "द्रव्यकर्मके उदयसे संसारी आत्माका विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण होता है या नहीं ?" परन्तु इस प्रश्नके उत्तर में सोनगढ़पक्ष ने जो यह लिखा है कि 'द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गति भ्रमण में व्यवहारसे निर्मित नैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्त्ता कर्म सम्बन्ध नहीं है।' इस उत्तरसे एक तो अपरपक्ष के प्रश्नका समाधान नहीं होता, क्योंकि प्रदनमें यह नहीं पूछा गया है कि द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गति भ्रमण में निमित्तनैमित्तिक संबंध व्यवहारसे है या विषयसे ? तथा यह भी नहीं पूछा गया है कि द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुररीतिभ्रमण में कर्तृकर्म सम्बन्ध है या नहीं ? जबकि इनका समाधान ही इस उत्तरवचन से हो सकता है और जो यह पूछा गया है कि द्रव्य कर्मके उदयसे संसारी आत्मा का विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमण होता है या नहीं ?" इसका उससे समाधान नहीं होता । दूसरी बात यह है कि अपरपक्ष भी द्रव्यकर्मके उदय और संसारी आत्मा विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमे निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धको निश्वयसे न मानकर व्यवहारसे हो मानता है तथा सोनगढ़पक्ष के समान उसमें कर्तृकर्म सम्बन्धको अपरपक्ष भी नहीं मानता है और मानता भी है तो सोनगढ़पक्ष के समान ही उपचारसे मानता हूँ। इस तरह सोनगढ़पक्षने प्रश्नके विषयकी उपेक्षा करके अप्रकृत और निर्विवाद विषयको हो अपने उत्तर वचनका विषय बनाया है। सो उसका यह प्रयत्न तत्वचर्चाकी दृष्टिसे अनुचित है । यद्यपि अपरपक्ष अपने द्वितीय और तृतीय दौरोंमें इन सब बातों को स्पष्ट किया है परन्तु सोनगढ़ पक्षने उसपर ध्यान नहीं दिया है, इसलिये इस समीक्षाग्रन्थ में इन सब बातोंपर पुनः विस्तारसे प्रकाश डाला गया हूँ ।
२. अपरपक्ष जीवित शरीरकी क्रिया के पृथक् पृथक् दो भेद मान्य करता है - एक है जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रियारूप जीवितशरीरकी क्रिया और दूसरा है शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवितशरीरकी क्रिया । इनमेंसे अपरपक्ष भी जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियारूप जीवितशरीरको क्रिया से आत्मामें धर्म-अधर्म नहीं मानता है, परन्तु वह शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियासे तो आत्मायें धर्म-अधर्म नियमसे मानता है। सोनगढ़पक्ष जीवित शरीरकी क्रियाके उपर्युक्त प्रकार पृथक्-पृथक् दो भेद न मानकर शरीरको क्रियाके रूपमें दोनोंको सम्मिलित कर एक भेद ही स्वीकार करता है और उससे वह आत्मामें धर्म-अधर्मकी उत्पत्ति नहीं मानता है। इस तरह दोनों पक्षोंके मध्य विवादका दूसरा विषय यह था कि जहाँ अपरपक्ष शरीरके सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म मानता है वहाँ सोनगढ़पक्ष एक तो शरीरके सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियाको शरीरकी क्रियारो पृथक नहीं मानता है। दूसरे, वह उस क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्मकी उत्पत्ति नहीं मानता है । फलतः इस विवादको समाप्त करनेकी दृष्टिसे ही अपरपक्षने सोनगढ़ पक्षके समक्ष यह प्रश्न उप स्थित किया था कि "जीवित वारीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है या नहीं ?" परन्तु सोनगढ़पक्षने इस प्रश्नका जो यह उत्तर दिया है कि "जीवित शरीरकी क्रिया पुद्गलदव्यकी पर्याय होनेके कारण उसका अजीत में अन्तर्भाव होता है, इसलिये वह स्वयं जीवका न तो धर्म भाव है और न अधर्म भाव ही है ।"