Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा २. इसकी प्रामाणिक दूसरी प्रतिलिपि मैंने प्रतिशंका तीनको सम्पूर्ण सामग्रीके साथ दि० २८-३-६४ को ही पं० वंशीधरजी न्यायालंकार (मध्यस्थ) को भी रजिस्ट्री द्वारा भेज दी थी। तथा इसके साथ भी यावश्यक स्पष्टीकरण भेजा था।
इस तरह अपरपक्षकी ओर से सभी प्रतिनिधियोंके हस्ताक्षर न होते हुए भी जो तृतोय वोरकी सामग्री पं० फूलचन्द्रणी वाराणसीको व पं० घंशीधरजी न्यायालंकार (मध्यस्थ) को मैंने भेजी श्री यह प्रतिनिधियों द्वारा प्रदत्त अधिकार-पत्रके आधारपर ही भेजी गई थी। इसलिये उसके भेजनेमें नियमके उल्लंघनका प्रश्न खड़ा ही नहीं होता। अतः मेरे अतिरिक्त दूसरे चार प्रतिनिधियोंके उसपर हस्ताक्षर न होनेसे पं० फूलचन्द्रजीने जो यह निष्कर्ष निकाला है कि 'तृतीय दौरकी सामग्रीसे अन्य प्रतिनिधि विद्वान् सहमत नहीं होंगे' उसे कल्पित ही कहा जा गका है। इसके अतिरिका यदि
जी ह मले है कि शेष चार प्रतिनिधि अपरगशकी तृतीय दौरकी सामग्रो संभवतः सहमत नहीं थे । लो जनका इसपर क्षोभ करना या आपत्ति उपस्थित करना व्यर्थ है । इससे तो उन्हें प्रसन्नता ही होनी चाहिए थी, क्योंकि अपरपक्षके चार प्रतिनिधियोंका उनको समझसे सोनगढके अनुकल हो जाना उनकी महत्त्वपूर्ण सफलता थी। परन्तु यह बात स्थलबलि व्यक्तिको समझ में भी आ सकती है कि जो प्रतिनिधि क्विान अपरपक्षको प्रथम और द्वितीय दीरोंकी सामग्रीसे सहमत रहे हैं वे तृतीय दौरकी सामग्रीसे कसे असहमत माने जा सकते है, जब तक कि वे अपने मतपरिवर्तनको स्पष्ट घोषणा न करें। इतने पर भी यक्षि पं. फलचन्द्रजी यह समझते हों या उन्होंने सम विवानोंखे यह जानकारी प्राप्त कर ली हो कि वे विद्वान् सोनगढ़ पक्षकी दृष्टिसे प्रभावित हो गये है तो इसपर अपरपक्षको लिये कुछ कहना नहीं है । किन्तु इसमें सोनगढ़पक्षको या पं० फूलचंद्र जीको ही सोचना है कि इस तरहके कल्पित या महत्त्वहीन आधारोंपर क्या सोनगढ़का पक्ष वास्तविक सिद्ध हो सकता है ' पथार्थमें तो उन महानुभावोंको सोनगढ़का पक्ष वास्तविक सिद्ध करने के लिए मुक्तियों और आगम प्रमाणोंकी ही महायता लेनो आवश्यक होगी। एवं उन्हें अपनी वृत्तियों और प्रवृत्तियोंका समन्वय भी अध्यात्मके साथ करना होगा ।
उन महानुभावोंसे मेरा कहना है कि उनको परस्पर विरोधी निम्न दो घटनाओंके आधारपर अध्यात्मके विषसमें अनेक बार सोचना चाहिए कि एक ओर तो उनके अध्यात्मवादके सूर्यको शारीरिक व्याधि सहन न कर सकने के कारण बम्बईके जसलोक अस्पतालमें सदाके लिये अस्त होना पड़ा और दूसरी ओर प्रातःस्मरणीय पूज्यपाद गणेशप्रसादजी वर्णीके पैरमें ललितपुरमें जब भयानक विपला फोड़ा प्रगट हुआ तो वे उसकी वेदनाको अपने आध्यात्मिक तेजके आधारपर ही शान्तिपूर्वक सहन करते हए अपनी शान और ध्यान आदिझी दैनिक नामें सामान्य रूपसे प्रवृत्त रहे। इतना ही नहीं, उरा फोड़ेको देखकर लाला राजकृष्णजी, दिल्ली वाले वर्णीजीके पास डॉक्टरको ले आये। जब डॉक्टरने उनसे कहा कि महाराजको आपरेशनके लिये अस्पताल ले चलिये, तब वणींजीने दृढ़ताके साथ अस्पताल जानेसे मना कर दिया। वर्णीजी अस्पताल नहीं गये और डॉक्टरने वहीं क्षेत्रपालमें ही उनका आपरेशन किया था। वर्णीजीने लेटकर आपरेशन कराने तथा क्लोरोफार्म मुंबनसे भी दृढतापूर्वक मना कर दिया था और चर्चा करते हुए बैठे-बैठे ही बड़ी शान्तिसे ऑपरेशन करा लिया था। डॉक्टर वर्णीजीकी इस आध्यात्मिक दृढ़ताको बेखकर बहत प्रभावित हुआ एवं नतास्तत्र हो गया था । आध्यात्मिकताको समझनेके लिये ये दो उदाहरण उपयुक्त एवं पर्याप्त है।
इन परस्पर विरोधी पूर्व और पश्चिम जैसी दोनों घटनाओंके आधारपर सामान्य जन भी अध्यात्मको पष्टतया समझ' सकता है। उसके लिये अध्यात्मके समझने में तत्व-विवेचनाको भी आवश्यकता नहीं है।