Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्तचर्चा और उसकी समीक्षा महानुभाव यह सोयनेफा प्रयत्न करते तो विश्वास है कि वे जयपुर खानियां तत्त्वचर्चाको केवल (सोनगढ़) पक्षके प्रचारका साधन नहीं बनाते ।
यहाँ मैं एक बात यह भी कहना चाहता हूँ कि उक्त ग्रन्थमालाकी तरफसे प्रकाशित खानिया तत्त्वचर्चाके दोनों भागोंके प्रारम्भमें जो सातच! समीपरहिकोंगी बोटो पापियां मनिकाली गई हैं उनके उस मुद्रणमें भी हमें यद्यपि कोई आपत्ति नहीं होती, परन्तु उनके उस मुद्रण में इसलिये आपत्ति है कि उसमें उन महानुभावोंका उद्देश्य सोनगढ़पक्ष को प्रामाणिक और उचित सिद्ध करने तथा अपरपक्षको अप्रामाणिक और अनुचित बतानेका रहा है, जो दूपित है। इसकी पुष्टि पं० फूलचन्द्रजीके वक्तव्योंसे होती है । खानिया तत्वचर्चाके सम्पादकीय पृष्ठ ३३ पर उन्होंने लिखा है :
"आगेके लिए भी व्यवस्था यह थी कि प्रत्येक सामग्नी एक पक्ष दूसरेके पास मध्यस्थत माध्यम्स ही भेजेगा । परस्परके पत्रव्यवहार में तो इसका पूरी तरहसे पालन होना संभव नहीं था । हाँ, तत्त्यचर्चा सम्बन्धी पत्रकों पर व्यवस्थानुसार मध्यस्थके हस्ताक्षर होना आवश्यक था 1 हमारी ओरसे तो इस व्यवस्थाको बराबर ध्यान में रखा गया। परन्तु अपरपक्षने इसे विशेष महत्व न देकर पूरी सामग्री मरे पाम सीधी भेज दी । इतना संकेत मात्र इसलिये किया है कि अपरपक्षकी तीसरे दौरको सामग्री पर मव्यस्थवे. हस्ताक्षर नहीं है।"
इसके उपरान्त प्रकाशित जैन तत्त्वमीमामा (द्वितीय संस्करण) के 'आत्मनिवेदन' (पृष्ठ ७ व ८) में भी पं० फूलचंद्र जीने लिखा है
१. "नियमानुसार लिखित चर्वा तीन दौरोंगें पूर्ण होनी थी। उनमेसे दो दौरकी लिखित चर्चा तो वहीं सम्पन्न कर ली गई थी। तीसरे दौरकी चर्चा परोक्षमें लिखित आदान-प्रदानसे सम्पन्न हो सकी । नियम यल्छ था कि लिखित रूपमें जो भी सामग्री एक-दूसरे पक्ष को समर्पित यी जायेगी उरा पर सम्मेलन के समय अपने-अपने पक्ष के निर्णीत प्रतिनिधि हस्ताक्षर करेंगे और मध्यस्थके मार्फत यह एक-दुसरेको समर्पित की जायेगी। किन्तु तीसरे दौरकी सामग्री समर्पित करते समय उस पल को ओरसे इस नियमकी पूर्ण रूपसे उपेक्षा की गई, क्योंकि उस पक्षकी ओरसे जो लिखित सामग्री रजिस्ट्री वारा हमें प्राप्त हुई थी उसपर न तो उस पक्षके पांच से चार प्रतिनिधियों ने अपने हस्ताक्षर ही किये थे और न ही वह मध्यस्थकी मार्फत ही भेजी गई थी, उस पर केवल एक प्रतिनिधिने हस्ताक्षर कर दिये और सीधी हमारे पास भेज दी गई।"
२. "उस पक्षके प्रनिनिधि विद्वानों द्वारा ऐसा क्यों किया गया यह तो हम नहीं जानते । फिर भी इस परसे यह निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि उस पक्षकी ओरसे तीसरे दौरकी जो लिखित सामग्री तैयार की गयी उसमें उस पक्षके अन्य चार प्रतिनिधि विद्वान् सहमत नहीं होंगें । यदि सहमत होते तो वे नियमानुसार अवश्य ही हस्ताक्षर करते और साथ ही नियमानुसार मध्यस्थकी मार्फत भिजाते भी। उन प्रतिनिधि स्वरूप चार विद्वानोंका हस्ताक्षर न करना अवश्य ही तीसरे दौरकी उस पक्षकी ओरसे प्रस्तुत की गई लिखित पूरी सामग्री पर प्रश्नचिह्न लगा देता है। तत्काल'इस विषय पर हम और अधिक टिम्गणी नहीं करना चाहते । आवश्यकता पड़ी तो लिखेंगे।"
३. “इस प्रकार तीसरे दौरकी प्रतिशंका सामग्री के प्राप्त होनेपर हमारे सामने अवश्य ही यह सवाल रहा है कि हम इसे स्वीकार कर उसके आधारपर प्रत्युत्तर तैयार करें या नियमविरुद्ध इस लिखित सामग्रीके प्राप्त होनेसे हम उसे वापिस कर दें। अन्त में काफी विचार विनिमयके बाद यही सोचा गया कि भले ही यह लिखित सामग्री नियमविरुद्ध प्राप्त हुई हो उसके प्रत्युत्तर तैयार करना ही प्रकृतमें उपयोगी है। और इस