Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 15
________________ अपनी बात १७ इस उत्तरसे भी अपरपक्ष के प्रश्नका समाधान नहीं होता, क्योंकिउक्त प्रश्न में यह नहीं पूछा गया है कि जीवित शरीरकी क्रिया आत्माका धर्मभाव है या अधर्मभाव ? जबकि इसका समाधान हो उस उत्तरवचनसे हो सकता है और जो यह पूछा गया है कि जीवितवारीरकी क्रिया से आत्मामें धर्म-अधर्म होता है या नहीं ? इसका उससे समाधान नहीं होता। दूसरी बात यह है कि अपरपक्ष भी जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरको क्रियाको आत्माका धर्मभाव या अधर्मभाव नहीं मानता है। साथ ही वह जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रिया रूप जीवितशरीरकी क्रियाने आत्मामें धर्म-अधर्मकी उत्पत्ति भी नहीं मानता है। वह तो केवल शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवितशरीरकी क्रिया हो आत्मामें धर्म-अधर्मकी उत्पत्ति मानता है । इन राब बातोंको भी अपरपक्षने अपने द्वितीय और तृतीय दौरोंमें स्पष्ट किया है । परन्तु सोनगढ़ पक्षने उसपर भी ध्यान नहीं दिया है। अतः इस समीक्षा में इन सब बातोंपर भी विस्तारसे प्रकाश डाला गया है। ३. अपरपक्ष और सोनगढ़ पक्षके मध्य विवादका तीसरा विषय यह था कि जहां अपरपक्ष पुण्यभावरूप जीवदया से पृथक् निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म के रूपमें धर्मरूप जीवदया को भी मान्य करता है वहाँ सोनगढ़पक्ष पुण्यभावरूप जीवदया से पृथक् निश्चयधर्मरूप जीवदयाको मान्य करके भी व्यवहारघर्मरूप जीवदयाको निश्चित ही नहीं मानता हूँ । अतः इस विवादको समाप्त करने के लिए ही अपरपक्षने सोनगढ़पक्ष के समक्ष यह प्रश्न उपस्थित किया था कि जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ? इस प्रश्नका उसर सोनगढ़पक्षने यह दिया है कि इस प्रश्न में यदि धर्मपदका अर्थ पुण्यभाव है तो जीवदयावते पुण्यभाव मानना मिथ्यात्व नहीं हूँ ।' तथा 'मदि इस प्रश्नमें धर्मपदका अर्थ वीतरागपरिणति लिया जाये तो जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है ।' तात्पर्य यह है कि जहाँ अपरपक्ष ने अपने प्रश्न में यह बतलाया है कि जिस तरह जीवदया पुण्यभावरूप होती है उसी तरह वह धर्मरूप भी होती है । परन्तु सोनगढ़ पक्षने प्रश्नका आशय इस रूपमें ग्रहण किया है, मानो अपरपक्ष पुण्यरूप जीवदयाको हो वर्मरूप जीवदया मानता हो । सो यह सोनगढ़पक्षकी भूल हूँ। इसका स्पष्टीकरण अपरपक्षने द्वितीय और तृतीय दौरोंमें किया है। परन्तु सोनगढ़ पक्षले उसपर ध्यान नहीं दिया । अतः इस समीक्षाग्रन्थ में इसपर भी विस्तारसे प्रकाश डाला गया है । ४. अपरपक्ष और सोनगढ़पक्ष के मध्य विवादका चौथा विषय यह था कि जहाँ अपरपक्ष व्यवहारधर्मको निवधर्म में साधक मानता है वहाँ सोनगढ़पक्ष व्यवहारधर्मको निश्चयधर्म में साधक नहीं मानता। अतः इस विवादको समाप्त करने के लिए अपरपक्षने सोनगपक्षके समक्ष यह प्रश्न प्रस्तुत किया था कि "व्यवहार धर्म निश्चय में साधक है या नहीं ?" इसका उत्तर सोनगढ़पक्ष ने यह दिया है कि "निश्चय रत्नत्रयस्वरूप ती अपेक्षा यदि विचार किया जाता है तो व्यवहारधर्म निश्चयधर्म में साधक नहीं है, क्योंकि निश्चयधर्म की उत्पत्ति परनिरपेक्ष होती है ।" यद्यपि अपरपक्षने द्वितीय और तृतीय दौरोंमें आगमप्रमाणों के आधारपर यह सिद्ध किया है कि व्यवहारधर्म निश्वयधर्म में साधक है, परन्तु सोनगढ़पक्षने उसपर ध्यान नहीं दिया है | अतः इस समीक्षा में इसपर भी विस्तारसे प्रकाश डाला गया है । अपरपक्षका सोनगढ़ के साथ इसी विषय के अन्तर्गत दूसरा विवाद यह था कि जहाँ अपरपक्ष व्यवहारधर्मको अशुभ प्रवृत्ति निवृत्तिपूर्वक शुभ प्रवृत्ति के रूप में शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रिया मानता है वहाँ सोनगढ़प बहार धर्मको अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिके रूपमे जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरको क्रिया मानता है । यद्यपि अपरपक्ष में द्वितीय और तृतीय दौरोंमें इसपर भी विचार करते हुए बतलाया है कि व्यवहारधर्म जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रिया न होकर शरीर के सहयोगसे होनेवाली जीवको ही क्रिया है । परन्तु सोनगढ़ पक्षने इसपर भी ध्यान नहीं दिया है । अतएव इस समीक्षाग्रंथ में उसपर भी विस्तारसे प्रकाश डाला गया है ।

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