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लेता है, उसे ही वर्धमानसूरि ने क्षुल्लक दीक्षा का अधिकारी माना हैं। क्षुल्लक दीक्षा में भी यद्यपि वह सामायिक चारित्र के साथ-साथ पंचमहाव्रतों का पालन करता है, किन्तु वर्धमानसूरि ने यहाँ मुनिदीक्षा में गृहीत महाव्रतों की अपेक्षा क्षुल्लक दीक्षा में गृहीत महाव्रतों में अन्तर किया है। उनके अनुसार क्षुल्लक दीक्षा में सामायिक चारित्र और महाव्रतों का ग्रहण दो करण एवं तीन योग से होता है, जबकि मुनिजीवन में उसका ग्रहण तीन करण और तीन योग से होता है, इस प्रकार वह महाव्रतों का ग्रहण सीमित रूप में ही करता है । वह स्वतः हिंसादि करने एवं अपने हेतु करवाने का त्याग करता है, किन्तु उनके अनुमोदन का त्याग नहीं करता है । इसी आधार पर सम्भवतः यह माना गया है कि उसे गृहस्थों के कुछ संस्कार एवं प्रतिष्ठा आदि सम्बन्धी विधि-विधान करवाने का अधिकार हैं । जहाँ सामान्य रूप से वर्तमान में मुनिदीक्षा और उपस्थापना दोनों में विशेष प्रतीक्षा - काल नहीं होता है, वहाँ वर्धमानसूरि ने तीन वर्ष तक ब्रह्मचर्य व्रत के पालन और तीन वर्ष तक क्षुल्लक अर्थात् प्रशिक्षु के रूप में मुनिजीवन के अभ्यास को आवश्यक माना है । इस प्रकार आचारदिनकर में वे मुनिजीवन के प्रवेश के पूर्व साधक को छः वर्ष की अवधि एक प्रशिक्षु के रूप में व्यतीत करने का निर्देश देते हैं । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है, वर्धमानसूरि आचारदिनकर में यह व्यवस्था देते है कि यदि साधक इस काल में अपने को मुनिजीवन जीने में असमर्थ मानता है तो वह गृहवास में जा सकता है। जबकि दिगम्बर परम्परा में यह माना गया है कि ब्रह्मचर्य प्रतिमा और क्षुल्लक दीक्षा आजीवन के लिए होती है, उससे वापस गृहस्थ जीवन में जाया नहीं जा सकता है। आचारदिनकर में ब्रह्मचर्य व्रतग्रहण विधि और क्षुल्लक दीक्षाविधि के बाद, प्रव्रज्या विधि एवं उपस्थापना विधि का विवेचन किया गया है । ये दोनों विधियाँ कुछ सामान्य अन्तर को छोड़कर आज भी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में उसी रूप में प्रचलित है । प्रस्तुत कृति में जहाँ क्षुल्लक दीक्षा में दो करण तीन योग से महाव्रतों की प्रतिज्ञा करवाई
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