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आचारदिनकर (भाग-२)
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129 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान // पच्चीसवाँ उदय // आचार्य पदस्थापन-विधि
दीक्षा और आचार्यादि पदस्थापन-विधि में मूल, पुनर्वसु, स्वाति, अनुराधा, हस्त, श्रवण, रोहिणी, मार्गशीर्ष एवं उत्तरात्रय नक्षत्र शुभ माने गए हैं। लत्तादि सप्त दोषों से रहित इन नक्षत्रों में तथा शुभ वर्ष, मास, दिन और लग्न में आचार्य पदस्थापन की विधि करे। पदस्थापना के लग्न में ग्रहों की युति दीक्षा के समान ही देखें तथा वर्ष, मास, दिन, नक्षत्र आदि की शुद्धि का विचार विवाह के समान करे। आचार्य पद के योग्य मुनि के लक्षण इस प्रकार हैं -
वह छत्तीस गुणों से युक्त, रूपवान् एवं अखण्डित अंगोपांग वाला हो, साथ ही सर्व विद्याओं में निपुण हो, कृतयोगी हो, द्वादशांगी का परिपूर्ण रूप से सम्यक् ज्ञान हो, शूरवीर, दयालु, धीर, गंभीर और मधुरभाषी हो, मनोहर आर्य देश में उत्पन्न एवं ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य - इन तीन वर्गों में जन्मा हआ हो, माता-पिता दोनों के कल से विशुद्ध हो, क्रोधादि कषायों एवं इन्द्रियों को जीतने वाला हो, विनीत हो, देशकाल और परिस्थिति को समझने वाला हो, स्व-पर शास्त्र का ज्ञाता हो, प्रतिभा सम्पन्न, विद्वान एवं तपकर्म में सदा रत रहने वाला हो, निर्देश देने में बहुत कुशल हो, पुरुष की बहत्तर कलाओं एवं षड्भाषाओं का ज्ञाता हो। सभी देशों की भाषाओं को समझने तथा बोलने में समर्थ हो, चौदह लौकिक विद्याओं में पारंगत हो, सौम्य (शान्त) तथा क्षमावान् हो, सर्व मंत्रादि को जानने वाला तथा परिस्थिति विशेष में उनका प्रयोग करने में समर्थ हो; सदाचारी, कृतज्ञ, स्पष्टवक्ता (निष्कपटी), लज्जावान् और नीतिवान् हो, अष्टांगयोग की साधना करने वाला हो। इन गुणों से युक्त उत्कृष्ट मुनि आचार्य पद के योग्य होता है।
आगम में भी कहा गया है -“आचार्य रूपवान् (श्रेष्ठ चारित्र वाला), युगप्रधान, अर्थात् देश-काल एवं परिस्थितियों के ज्ञाता, आगमज्ञ, मधुरवक्ता, गंभीर, बुद्धिमान और सन्मार्ग का उद्देश देने वाले होते हैं।"
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