Book Title: Jain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 209
________________ HTTER आचारदिनकर (भाग-२) 166 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान प्रतिलेखना करे। तत्पश्चात् तिर्पणी में प्रासुक जल ग्रहण करके जिनालय हेतु प्रस्थान करे। जिनालय में चार स्तुतियों द्वारा चैत्यवंदन, अर्थात् देववंदन करे और उसके बाद बाहर जाकर स्थण्डिल भूमि पर मलमूत्र का उत्सर्ग करे। पुनः वसति में आकर गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करे। जैसा कि कहा गया है - सभी जगह गमन के अन्त में मलमूत्र का त्याग करने पर, कथा के अन्त में, चलने के बाद, चैत्य के मध्य प्रवेश करने पर, स्थिर वस्त्र के प्रयोग के समय, वन्दन आदि आवश्यकों में, शक्रस्तव का पाठ करते समय, भोजन आदि कमों के अन्त में, अवग्रह का ग्रहण करने पर, प्रत्याख्यान आदि लेते समय, षट्जीवनिकाय के संघट्ट होने पर, परिग्रह आदि का संस्पर्श दोष लगने पर, कालग्रहण में, स्वाध्याय और जलपान की क्रियाओं में - इन सभी स्थितियों में साधु-साध्वी को हमेशा ईर्यापथिकी की क्रिया से इन क्रियाओं में लगे दोषों की आलोचना करनी चाहिए अर्थात् साधु-साध्वियों को हमेशा ईर्यापथिकी के प्रतिक्रमण का आचरण करना चाहिए। निश्चित ही जीवनपर्यन्त के लिए स्वीकार की गई, उनकी यह सर्वविरति सामायिक ईर्यापथिकी (गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना) के बिना शुद्ध नहीं होती है। तत्पश्चात् पुनः शक्रस्तव बोलकर प्रत्याख्यान पारणे के लिए मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करे। तत्पश्चात् गुरु से कहें -“चौविहार पोरसी सहित आगार से युक्त भक्त पान के प्रत्याख्यान को मैं पूर्ण करना चाहता हूँ।" गुरु कहते हैं - "जिसका भी काल पूरा हो गया हो, वे प्रत्याख्यान पार लें, अर्थात् पूर्ण कर लें।" फिर विधिपूर्वक तीन प्रकार से पात्रों की प्रतिलेखना करे। तत्पश्चात् पिण्डनियुक्तिशास्त्र में कही गई विधि के अनुसार आहार-पानी की गवेषणा करे। साधु और साध्वी व्यायाम, भिक्षा एवं अन्य कार्यों के लिए सौ हाथ से बाहर एकाकी न जाए - इस नियम का पालन करते हुए साधु और साध्वी को सर्वत्र विचरण करना चाहिए। जैसा कि आगम में भी कहा गया है - "सूत्र और अर्थ को पूछने के लिए, किसी को उद्देश या प्रेरणा देने के लिए, मरणांतिक आराधना, अर्थात् संलेखना ग्रहण करने वाले के विनय एवं वैयावृत्त्य हेतु भी साधु अकेला न जाए। अकेले भिक्षाचर्या के लिए जाने में भी विक्षिप्त स्त्रियों का नित्य भय बना रहता है, क्योंकि अकेले में ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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