Book Title: Jain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 230
________________ आचारदिनकर (भाग-२) 187 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान विधि से व्रत का पालन करते हुए कदाचित् पूर्वकर्म के कारण उसे रोग या शरीर में पीड़ा उत्पन्न हो जाए, तो वह जब तक हो सके, उसे सहन करे, अर्थात् व्यथित न हो और चिकित्सा न कराए, किन्तु साधक के व्यथित होने पर प्रधान मुनि का यह कर्तव्य है, कि वह विषम उपायों से, अर्थात् अपवादमार्ग का आश्रय लेकर भी उसकी रक्षा करे, क्योंकि उसके बिना शासन शून्य हो जाएगा, अर्थात् जिनशासन की अवहेलना भी होगी। जैसा कि आगम में कहा गया है - “यतिजन चिकित्सा न कराएं, रोगजन्य पीड़ा सम्यक् प्रकार से सहन करे। सम्यक् प्रकार से सहन करते हुए जब तक कि उसके कारण से योग, अर्थात् शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक प्रवृत्तियाँ शिथिल न हो, तब तक उपचार न कराएं। ऋजु व संविग्न विहारी मुनिजनों के सर्वप्रयत्न जिनशासन की शोभा बढ़ाने के लिए होना चाहिए, किन्तु जिनकल्प का ग्रहण करने वालों के अतिरिक्त विरुद्ध रूप से जिनसिद्धान्त की प्ररूपणा करने वाले ज्ञानीजनों की और सिद्धांत-शास्त्र का अध्ययन करने वालों की चिकित्सा आदि के माध्यम से जीवनरक्षा करनी चाहिए, किन्तु चिकित्सा करने पर भी यदि रोग का निरोध न हो, तो पूर्ण आयुष्यवाला मुनि अपनी मृत्यु को निश्चित जाने। योगशास्त्र के पंचम प्रकाश में वर्णित बाह्य चिन्हों एवं आभ्यन्तर साधनों से मृत्यु को निकट जानकर मुनि अन्त्य आराधना करें। उसकी विधि इस प्रकार है अवश्यम्भावी मृत्यु के आने पर मुहूर्त आदि की शुद्धि का विचार करना आवश्यक नहीं है। ग्लान के समक्ष चतुर्विध संघ को एकत्रित करके जिनबिम्ब को लेकर आए। तत्पश्चात् ग्लान द्वारा दर्शन कर लेने पर ग्लान की शक्ति हो, तो वह स्वयं अर्हत् परमात्मा का चार स्तुतियों से युक्त चैत्यवंदन करे, अन्यथा उसके सहचर मुनिजन उपर्युक्त विधि से चैत्यवंदन कराएं। तत्पश्चात् शान्तिनाथ, श्रुतदेवता, क्षेत्रदेवता, भुवनदेवता, शासनदेवता, वैयावृत्त्यकरदेवता की आराधना हेतु पूर्ववत् कायोत्सर्ग एवं स्तुतियाँ करें। तत्पश्चात् आराधनादेवता का कायोत्सर्ग करे, कायोत्सर्ग में चार बार चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे। कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट रूप से चतुर्विंशतिस्तव बोले। फिर शक्रस्तव का पाठ करके शान्तिनाथस्तोत्र एवं जयवीयराय आदि गाथाएँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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