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आचारदिनकर (भाग-२) 193 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान "शिवमस्तु सर्वजगतम्" इत्यादि बोलें। फिर "हे भगवन् ! आवस्सी"यह कहकर अपने उपाश्रय में आएं। उपाश्रय के द्वार पर आकर पुनः चादर को उतारकर सुवर्ण जल के छींटे लें। उपाश्रय के मध्य में जाकर गर्म जल से (प्रासुक जल) से देह प्रक्षालित करें। आचार्य हो, महान् अनशन करने वाला हो, महातपस्वी हो या बहुत से लोगों को प्रिय हो - ऐसे साधु की मृत्यु होने पर तीन दिन का अस्वाध्यायकाल होता है तथा एक उपवास करना होता है। अन्य किसी की मृत्यु होने पर अस्वाध्यायकाल न मानें और न ही उपवास करे। अशुभ दिन में उत्थापन (उठावना), कायोत्सर्ग आदि का आरम्भ नहीं करते हैं। शुभ दिन में जिनपूजापूर्वक उत्थापन (उठावना) एवं शुभ कार्यों को प्रारम्भ करें - यह महापरिष्ठापना की विधि है। आचार्य आदि या अनशन करने वाले मृतकमुनि की शोभायात्रा आदि श्रावक करते हैं। प्रतिस्थापित शव की संस्कार-विधि करने का कार्य श्रावकों का है।
व्रतारोपण, योगोद्वहन, तपस्या, उपस्थापना, आवश्यक आदि सभी कार्यों की विधि साधु-साध्वियों के लिए समान ही बताई गई है। वन्दन एवं प्रतिष्ठा (स्थापना) आदि कार्यों में साध्वी का सवस्त्र होना आवश्यक है। विधिकारक श्राविका-श्रावक के कार्यों (कर्त्तव्यों) में ही भेद होता है, अन्य बातों में नहीं। साधु-साध्वियों की मृत्यु होने पर सूतक, पिण्डदान, शोक आदि नहीं होते।
- इस प्रकार आचार्य वर्द्धमानसूरिकृत "आचारदिनकर" में यतिधर्म के उत्तरायण में अन्तसंलेखना-कीर्तन नामक यह बत्तीसवाँ उदय समाप्त होता है।
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