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आचारदिनकर (भाग - २)
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान स्थिति को प्राप्त हुआ है, अतः इसके प्रति आसक्ति रखना उचित नहीं है, जाग्रत होकर इन कर्मशत्रुओं को भगा । अरे ! इस जीव ने पापकृत्य करते हुए अनेक प्रकार की सैंकड़ों योनियों में भ्रमण किया है, लाखों भव व्यतीत करने के पश्चात् यह जिनमत दुर्लभता से प्राप्त हुआ है। यह पापी जीव प्रमाद के वशीभूत होकर सांसारिक कार्यों में ही लगा हुआ है, न तो सुखों से संतुष्ट हुआ है, न दुःखों से निवृत्त हो पाया है। इस जीव ने जानते हुए भी सैंकड़ों शरीरों को धारण किया है और छोड़ा है। फिर भी त्रिभुवन में जो सब कुछ प्राप्तव्य है, उसका तो बहुत ही अल्पांश इसे मिलता है। इस जीव ने अनेक भवों में नख, दाँत, मांस, केश, अस्थि आदि का जो परित्याग किया है, उससे कैलाश या मेरु पर्वत के अनेक कूट खड़े हो सकते हैं और इस जीव ने जितना आहार किया है, वह तो हिमवंत पर्वत, मलय पर्वत, समुद्र में रहे हुए द्वीपों या पृथ्वी के परिमाण से भी कही अधिक है। इसने जितना जल पीया है, वह इस जगत् के समस्त सरोवर, तालाब, नदी और समुद्र के जल से भी अधिक है। अनंतकाल से संसार में परिभ्रमण करते हुए इस जीव ने काम-भोगों को प्राप्त करके उनका उपभोग भी किया है तथा काम-भोगों को ही अपूर्व मानते हुए उसी में सुख का अनुभव करता रहा है। यह जानते हुए भी कि सभी भोग एवं संपदाएँ धर्म से प्राप्त होती है, यह मूर्ख जीव पापकर्मों में रमण करता रहा है । यह जानते हुए और मानते हुए कि जन्म, जरा और मृत्यु दुःख से परिपूर्ण हैं, फिर भी कर्मों से प्रगाढ़ रूप से आबद्ध यह मायावी जीव विषयों से विरक्त नहीं हो सका है। यह जानते हुए भी कि देवता भी मृत्यु को प्राप्त करते हैं और बुढ़ापा शरीर को विनिष्ट कर देता है, फिर भी वह देह के लोभ से, अर्थात् जीने की आकांक्षा से मुक्त नहीं हो पाया है - ये सब कितने आश्चर्य की बाते हैं । द्विपद, चतुष्पद, बहुपद और अपद आदि की महत् समृद्धि को प्राप्त करने हेतु अकरणीय को भी करते हुए इसकी तृष्णा शान्त नहीं होती है। जिस प्रकार से आकाश तत्त्वों को रहने में प्रतिघात नहीं करता है, उसी प्रकार से धीर पुरुषों के मरणकाल के समय सिद्ध अवस्था को प्राप्त करने में जीव का भी कोई प्रतिघात नहीं होता । - इन गाथाओं को ग्लान को सुनाएं और
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