Book Title: Jain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 231
________________ आचारदिनकर (भाग-२) 188 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान बोले। तत्पश्चात् आराधना कराने वाले आचार्य, उपाध्याय, वाचनाचार्य या मुनि आसन पर बैठकर वासक्षेप को अभिमंत्रित करे। फिर "उत्तम आराधना के लिए वासक्षेप करे"- ऐसा ग्लान के मुख से बुलवाकर उसके सिर पर वासक्षेप एवं अक्षत डाले। तत्पश्चात् ग्लान तीन बार नमस्कार मंत्र बोलकर पुनः कहे - "मेरी स्मृति के अनुसार इस जीवनकाल में जिन-जिन स्थानों पर जिन परिस्थितियों में मैंने जिन परमात्मा की आशातना की हो, या अपराध किया हो, तो उन सब पापों की मैं आलोचना करता हूँ, किन्तु घातीकों से युक्त छद्मस्थ मूढ़ मन वाला यह जीव किंचित् मात्र का स्मरण कर सकता है (सब नहीं)। अतः जो मुझे स्मरण है तथा जो स्मरण नहीं है, वे सब मेरे दुष्कृत (पाप) मिथ्या हों। मैं उनकी आलोचना करता हूँ। मैंने मन से जो-जो अशुभ चिंतन किया हो, वचन से जो-जो अशुभ बोला हो तथा काया से जो-जो अशुभ किया हो, वह मेरा सब दुष्कृत्य मिथ्या हो। देह धारण की सार्थकता जन्म-मरण से मुक्त होने में तथा पापों के प्रति आसक्ति का त्याग करने में है।" यह गाथा ग्लान से बुलवाकर उससे आलोचना करवाए। आलोचना की विधि प्रायश्चित्त अधिकार में दी गई है। तत्पश्चात् ग्लान आचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका प्रत्येक से क्षमापना करे और यह गाथा बोले - “साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ ने भी यदि मन-वचन- काया से मेरी कोई आशातना की हो, तो मैं भी उनको क्षमा करता हूँ। यदि किसी ने मेरा कोई अपराध किया हो, तो मैं उसको क्षमा करता हूँ और वैसे ही यदि मैंने किसी का अपराध किया हो, तो वह भी मुझे क्षमा करें। मेरी सब जीवों के साथ मित्रता है, किसी के साथ शत्रुता नहीं है। अरिहंत ही मेरे देव हैं और सुसाधु ही मेरे गुरु हैं। इस प्रकार मैं विशेष रूप से सम्यक्त्व को स्वीकार करता हूँ।" तत्पश्चात् समाधिमरण का इच्छुक ग्लान “करेभि भंते सामाइयं "- इस सर्वविरति सामायिक दण्डक का तीन बार उच्चारण करता है तथा उपस्थापना की भाँति तीन बार पंचमहाव्रतों के दण्डक अर्थात् प्रतिज्ञा-पाठ का भी उच्चारण करता है। तत्पश्चात् “चत्तारि मंगलं" से लेकर “केवलि पण्णत्तं धम्मंसरणं पवज्जामि" तक इस पाठ का तीन बार उच्चारण करे। फिर नमस्कारमंत्र बोलकर "उत्तम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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