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आचारदिनकर (भाग-२)
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जैनमुनि जीवन के विधि-विधान होने पर या वर्षावास के पश्चात् मुनियों को हमेशा विहार करना चाहिए। जैसा कि आगम में कहा गया है "जिस गाँव में मुनि काल के उत्कृष्ट प्रमाण तक रह चुका हो, वहाँ दो वर्ष का अन्तराल किए बिना न रहे। भिक्षु आगम के अनुसार आचरण करे, आगम का जो तात्पर्य हो, उसी प्रकार व्यवहार करे। मुनियों को विहार करते समय बातचीत नहीं करनी चाहिए तथा सजग रहना चाहिए ।
अब विहार की उत्तम विधि क्या है ? इसका वर्णन है
वर्षा और शरद ऋतु को छोड़कर शेष चार ऋतुएँ विहार हेतु उपयुक्त हैं, मेघ रहित आकाश, सुभिक्षकाल, पथ की मनोज्ञता, राज्य में शान्ति, शत्रु-सेना के आक्रमण का अभाव, इस प्रकार की परिस्थिति मुनियों के लिए विहार हेतु उपयुक्त होती है।
विहार करने के योग्य मुनि इस प्रकार है - " जो शान्त हो, जिसके हाथ-पैर में चलने की शक्ति हो, सभी देशों की स्थिति को जानता हो, सभी भाषाओं में प्रवीण हो, जो रस, स्पर्श एवं स्थान में भी लुब्ध न हो, कलाओं का जानकार हो, सभी विद्याओं में प्रवीण हो, संयम पालन में दृढ़ हो, चुस्त शरीर वाला और युवा हो, जिसे पर की अपेक्षा न हो, शीत, उष्ण, तृष्णा, क्षुधा, निद्रा आदि परिषहों को भी जिसमें सहन करने की क्षमता हो, जिसके पास मुनि-जीवन के अपेक्षित उपकरण हो एवं गुरु की आज्ञा पालन करने हेतु तत्पर हो, ऐसे साधु सदैव विहार करने के लिए योग्य होते हैं, इन गुणों से रहित साधु विहार करने के लिए अयोग्य होता है ।
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विहार के लिए आवश्यक स्थितियां एवं वस्तुएँ इस प्रकार हैंअच्छे सार्थ का साथ होना, शुभ दिन, प्रचुर मात्रा में वस्त्र, पात्र आदि तथा दण्डप्रोच्छन ( दण्डासन) आदि मुनि के सभी उपकरण, अनेक प्रकार के दण्ड, प्रचुर मात्रा में पुस्तक एवं कम्बल, देह का सामर्थ्य एवं धैर्य विहार हेतु अनिवार्य है।
विहार के अयोग्य देश के लक्षण इस प्रकार है
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विहार के अयोग्य देश वे हैं, जिनमें अनार्य लोग रहते हों, जहाँ के लोग पापकारी प्रवृत्तियों में अधिक प्रवृत्त हों, जहाँ दुर्भिक्ष हो,
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