Book Title: Jain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 227
________________ 184 आचारदिनकर (भाग-२) जैनमुनि जीवन के विधि-विधान शरदकाल में साधुओं की यही चर्या बताई गई है। इस ऋतु में विहार न करे, नई वस्तुएँ न लें तथा आहार पानी का यथासंभव त्याग करें - यह शरदऋतु की चर्या है। ___ अब व्याख्यान की विधि बताई जा रही है - साधुओं में आचार्य, उपाध्याय और साध्वियों में महत्तरा जो संघ के समक्ष व्याख्यान करते हैं अर्थात् धर्मोपदेश देते हैं, उनके लिए यह कहा है कि वे द्वादशांग, उत्कालिक और कालिक आगम की व्याख्या कायोत्सर्ग एवं योगादि के साथ करें। (अर्थात् योग का वहन करके ही इनका व्याख्यान करे) त्रिषष्टि शलाका पुरुष के संपूर्ण चरित्र की भी व्याख्या करें। गण के वयोवृद्ध साधु-साध्वियों एवं श्रावक-श्राविकाओं के धर्म-सम्बन्धी दृष्टान्त देने के लिए मुनि उन कथानकों को विस्तारपूर्वक विवेचित करें। __ मुनि प्रायः इन बारह भावनाओं का व्याख्यान करते हैं - १. अनित्यभावना २. अशरणभावना ३. संसारभावना ४. एकत्वभावना ५. अन्यत्वभावना ६. अशुचिभावना ७. आश्रवभावना ८. संवरभावना ६. निर्जराभावना १०. धर्मख्यात, अर्थात् अरिहंत भाषित धर्म का स्वरूप ११. लोकस्वरूप भावना एवं १२. बोधिदुर्लभ भावना। सिद्धांत-ग्रंथों एवं उनकी टीका, चूर्णी आदि का प्रसंग अनुसार अध्ययन करे एवं उनके आधार पर धर्मोपदेश दें। इसके अतिरिक्त जैन प्रमाणशास्त्र का भी अध्ययन एवं व्याख्यान करे। वाद-विवाद के लिए अन्य ग्रंथों का भी अध्ययन करें, किन्तु परम अर्हत् द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों की व्याख्या धर्माचार के अनुकूल ही करे। वह निरूक्त, ज्योतिष, छन्द, शिक्षा, व्याकरण, कल्प आदि छः शास्त्रों का अध्ययन धर्मोपदेश के लिए करे। वेद, पुराण, स्मृति एवं शिल्प-सम्बन्धी ग्रंथों का अध्ययन न करे और न ही इनका व्याख्यान करें। वैद्यक, कामशास्त्र, दण्डनीति, जीविका, मीमांसा शास्त्रों को भी मुनिजन नहीं पढ़ें। वर्षाकाल में विशेष रूप से साधु धर्मकथा कहें। धर्मोपदेश के समय मुनि अन्य कार्यों का त्याग करे। शान्त स्वभाव के मुनिजन पर्दूषण के आने पर कल्पसूत्र की वाचना करें, किन्तु प्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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