Book Title: Jain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 217
________________ 174 आचारदिनकर (भाग-२) जैनमुनि जीवन के विधि-विधान में यात्रा करना अशुभ है, अर्थात् धनिष्ठा से लेकर सात-सात नक्षत्र कमशः उत्तर, पूर्व, दक्षिण एवं पश्चिम द्वार के हैं। अतः इन-इन नक्षत्रों में उन-उन दिशाओं में उन-उन से सम्बन्धित विदिशाओं में यात्रा करना शुभदायक है। धनिष्ठा आदि सात नक्षत्र तथा कृत्तिकादि सात नक्षत्र परस्पर स्वकीय हैं, इसी प्रकार मघादि सात नक्षत्र एवं अनुराधादि सात नक्षत्र भी परस्पर स्वकीय हैं, अतः इन स्वकीय नक्षत्रों में उत्तर के नक्षत्रों में पूर्व की यात्रा, पूर्व के नक्षत्रों में उत्तर की यात्रा, दक्षिण के नक्षत्रों में पश्चिम की यात्रा एवं पश्चिम के नक्षत्रों में दक्षिण की यात्रा करना मध्यम है, किन्तु उत्तर-पूर्व के नक्षत्रों में दक्षिण-पश्चिम की ओर यात्रा करना अशुभ है। सभी दिशाओं में एवं कालों में सिद्धि प्राप्त करने के लिए हस्त, श्रवण, रेवती, अश्विनी, मृगशीर्ष तथा पुष्य नक्षत्र में विहार करना शुभ माना गया है। गुरुवार को दक्षिण दिशा में, शनिवार और सोमवार को पूर्व दिशा में, शुक्रवार और रविवार को पश्चिम दिशा में, बुधवार एवं मंगलवार को उत्तर दिशा में, मंगलवार को वायव्य कोण में, शनिवार और बुधवार को ईशान कोण में, शुक्रवार और रविवार को नैऋत्य कोण में एवं गुरुवार और सोमवार को आग्नेय कोण में प्रस्थान न करे। श्रीखण्ड (चन्दन), दही, घृत, तेल, पिष्ट, सर्पि और खल (तिलकूट) क्रमशः प्रत्येक वार के अशुभत्व का भेदन करते हैं - यह दिशाशूल का विचार है। आषाढ़ एवं श्रवण नक्षत्र में पूर्व दिशा में, धनिष्ठा, विशाखा नक्षत्र में दक्षिण दिशा में, पुष्य एवं मूल नक्षत्र में पश्चिम दिशा में, हस्त नक्षत्र में उत्तर दिशा में विहार न करे - ये नक्षत्र शूल के समान कहे गए हैं। यह नक्षत्रशूल का विचार है।। ज्येष्ठा नक्षत्र में पूर्व दिशा में, पूर्व भाद्रपद में दक्षिण दिशा में, रोहिणी नक्षत्र में पश्चिम दिशा में एवं उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में उत्तर में जाना अशुभ माना गया है। पूर्व से आरंभ करके आठों दिशाओं में दो-दो तिथियाँ योगिनी संज्ञिका कही जाती हैं। जैसे - पूर्व दिशा में प्रयाण करते समय प्रतिपदा एवं नवमी योगिनी संज्ञिका तिथियाँ हैं। वह तिथि अपने प्रारम्भकाल से डेढ़-डेढ़ घंटे तक (अर्द्धप्रहर) तक अपनी स्थित दिशा में दक्षिण क्रम से निवास करती है अर्थात् प्रत्येक दिशा में आधे-आधे प्रहर तक रहती है। इसे ही अर्द्धप्रहर योगिनी या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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