Book Title: Jain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 221
________________ आचारदिनकर (भाग - २) 178 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान और कल्पतर्पण ग्राही उसे पूर्व में बताए गए अनुसार मिलाकर फैलाए गए हाथों में उस जल को ग्रहण करे । तत्पश्चात् हाथों को ऊपर-नीचे करके उन्हें स्नान - मुद्रा में स्कन्ध के सम्मुख ले जाए । उसके बाद उन्हें पट्ट के सम्मुख ले जाए । तत्पश्चात् मुनिजन अपने - अपने उपकरणों की प्रतिलेखना करके, उन्हें कल्पतर्पण जल से सिंचित करें और उसी प्रकार वसति को भी सिंचित करें - यह कल्पतर्पण की विधि है । यही विधि कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा के बाद भी की जाती है । यह विधि करने के बाद मुनिजन प्रमादरहित होकर सिद्धांत की वाचना में स्थित होते हैं । आश्विन मास और चैत्र मास दोनों के नवरात्र के व्यतीत होने पर कल्पतर्पण की विधि करनी चाहिए। - यह बसंत ऋतु की चर्या है । ग्रीष्मऋतु में मुनिजन कायोत्सर्ग में रत रहें । आतापना का सेवन करते हुए आत्मा को आतापित करे। न तो शीतल जल की आकांक्षा करे और न ही ठंडे स्थान का सेवन करे अर्थात् ठंडक वाले स्थान में न रहें, न पानक आदि का सेवन करे और न ही स्नान करे । वैयावृत्त्य करने वाले कुछ मुनिजन संतोष के लिए पेय पदार्थ का तथा शीतल स्थान एवं जल आदि का सेवन करते हैं । मुनिजन प्रायः मल, दंश, परीषह को सहन करें । परमात्मा द्वारा निर्दिष्ट अस्नानव्रत का मुनिजन सदैव पालन करे। ग्रीष्मऋतु में विशेष रूप से सिद्धान्तशास्त्रों में जो कहा गया है, उसका पालन करे । ( यह बहुत स्पष्ट है कि - ) पोली भूमि और दरारयुक्त भूमि में सूक्ष्म प्राणी होते हैं । प्रासुक जल से स्नान करने वाला भिक्षु भी उन्हें जल से प्लावित करता है, इसलिए मुनि शीत या उष्ण जल से स्नान नहीं करते हैं । वे जीवन पर्यन्त घोर अस्नानव्रत का पालन करते हैं। मुनि शरीर पर उबटन करने के लिए गन्ध-चूर्ण, कल्क, लोघ्र, पद्मकेशर आदि का भी प्रयोग नहीं करते हैं। मुनि ग्रीष्मऋतु में विशेष रूप से षट्पदी की ( जीवों की रक्षा करते है तथा दीर्घ समय तक रखे गए प्रासुक अन्न एवं पेय पदार्थों का त्याग करते हैं। यह ग्रीष्मऋतु की चर्या है । वर्षाकाल में साधुओं को “उच्चार प्रस्रवण श्लेष्म" के लिए तीन मात्रकों की आवश्यकता होती है । वर्षाकाल में साधु विहार नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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