Book Title: Jain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 223
________________ 180 आचारदिनकर (भाग-२) जैनमुनि जीवन के विधि-विधान भी संलग्न होते हैं। कुछ विकृति का त्याग करते हैं, तो कुछ मुनि निश्चित परिमाण से अधिक चारों दिशा में जाने-आने का त्याग करते हैं। मुनिजन उपर्युक्त तथा अन्य सभी क्रियाएँ गुरु के आदेश से ही करें। पुनः-पुनः प्रमार्जन आदि करें। साधु अन्य साधुओं को बताकर ही दिशा या विदिशा में जाएं। भाद्रपद में शुक्ल पंचमी से सात दिन पूर्व से पर्दूषण पर्व प्रारम्भ होता है, आठवें दिन संवत्सरी महापर्व होता है। कुछ लोग भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन संवत्सरी करते हैं। पर्दूषण को छोड़कर अन्य पर्वोत्सव, अध्ययन एवं तपस्या मलमास में प्रारम्भ न करे, परन्तु जो प्रारम्भ हैं, उसे यथावत् कर सकते हैं। इसी प्रकार पर्युषण को छोड़कर मलमास में देव, पित्तर आदि अन्य के निमित्त उपवास व्रत न करे। विवाह, दीक्षा, व्रतारोपण किसी कार्य का प्रारम्भ एवं उद्यापन (समापन) अथवा पितृदेवता आदि से संबंधित अन्य कार्य भी शुभ मास में ही करे। लौकिक शास्त्रों में भी कहा गया है कि अग्निहोत्र, प्रतिष्ठा, यज्ञ, दान प्रतिग्रह, वेदोक्तव्रत, वृषोत्सर्ग, चूडाकरण (मुण्डन-संस्कार), यज्ञोपवीत धारण करना एवं अन्य भी कोई मांगलिक कार्य मलमास में न करे। मलमास का ज्ञान निम्न विधि से करे - जब सूर्य धनु एवं मीन राशि में हो, तब दो अमावस्याओं के बीच का काल मलमास कहा जाता है। शेष तुला आदि राशियों के पाँच-पाँच मास मलमास नहीं होते। जब अमावस्या का अतिक्रमण करके सूर्य धनु या मीन राशि में आ जाता है, उस अमावस्या के बाद का मास मलमास कहलाता है। उससे पूर्व के मास शुद्ध माने जाते हैं। पर्दूषण, चातुर्मासिक, पाक्षिक और अष्टमी आदि पर्यों में सूर्य का उदय जिस तिथि में हो उसी तिथि को ही मानें, अन्य को नहीं। प्रत्याख्यान, जिनेन्द्रदेव की पूजा आदि उसी तिथि में करना चाहिए, अन्यथा जिनेश्वर परमात्मा की आज्ञा का भंग होता है और आज्ञा का भंग करने से मिथ्यात्व का दोष लगता है। दशाश्रुतस्कंधभाष्य में कहा गया है - "सूर्योदय के समय जो तिथि घटिमात्र भी हो, तो वह सकला तिथि मानी जाती है तथा उसके विपरीत तिथि पैतृकतिथि (क्षयतिथि) मानी जाती है, क्योंकि पण्डितजन अर्द्धपल या पलांशमात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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