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आचारदिनकर (भाग-२) 177
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान सभी जगह निज-निज कुल देवता की पूजा के लिए सभी लोग महिष आदि पशुओं का वध करते हैं। वह काल मुनि के लिए अस्वाध्यायकाल होता है अर्थात् इस काल में मुनियों के लिए स्वाध्याय करना वर्जित है। इस समय आगमपाठ एवं कालग्रहण नहीं कल्पता है, अतः इसको (अस्वाध्यायकाल को) दूर करने के लिए कल्पतर्पण करे। उसकी विधि यह है -
वैशाख कृष्ण प्रतिपदा का दिन व्यतीत होने पर आलोचना एवं तप के योग्य दिनों में कल्पतर्पण विधि करे। “मृदु, ध्रुव, चर एवं क्षिप्र नक्षत्र मंगलवार एवं शनिवार को छोड़कर शेष वार आघाटन (गोचरी), तप, नंदी एवं लोच आदि में शुभ कहे गए हैं।“ मुनिजन अल्प जल से वस्त्र धोते हैं। तत्पश्चात् पूर्वाह्न में या अपराह्न में ईर्यापथिक सम्बन्धी पापों का प्रतिक्रमण कर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना तथा द्वादशावर्त्तवन्दन करके खमासमणा सूत्र से वन्दन कर कहता है -"हे भगवन् ! छमासिकाय संदिसावओ। हे भगवन् ! छमासिकाय पडिगाहउ।" गुरु कहे –“संदिसावेह, पडिगाहेह।" तत्पश्चात् मुनि दोनों (डोरी एवं तिर्पणी) का संस्पर्श करके पूर्व में बताई गई विधि के अनुसार तिर्पणी को ग्रहण कर गृहस्थ के घर जाने के लिए निकले। जाते समय शुभाशुभ शकुन देखे। यदि शुभ शकुन हो तो ही जाए अन्यथा पुनः अन्य शुभ दिन आने पर कल्पतर्पण विधि का आरंभ करे।
शुभ शकुन होने पर गृहस्थ के घर जाकर गृहस्थ के कांसी के कचोलक (तसले) से एवं सधवा स्त्री के हाथों से उस कल्पतर्पण जल को दाएँ हाथ से कंधे पर रही हुई कामली के आंचल से पकड़े तथा उसी विधि से अर्थात् उसी तरह वसति में आकर शुभपट्ट के ऊपर उसे रखे। तत्पश्चात् सभी साधु गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करके ज्येष्ठ क्रम से अल्प जल से पैरों को धोकर कल्पतर्पण को ग्रहण करे। उसकी विधि यह है -
पट्ट पर स्थित कल्पतर्पण ग्राही दोनों पैरों को नीचे भूमि से संस्पर्शित करे और दोनों हाथ मिलाकर फैलाए। तत्पश्चात् अन्य साधु लघु रजोहरण के अग्रभाग से कल्प तर्पण जल को धीरे-धीरे डाले
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