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आचारदिनकर (भाग-२)
170 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान // एकतीसवाँ उदय // साधुओं की ऋतुचर्या
अब साधुओं की ऋतुचर्या का वर्णन कर अलग-अलग ऋतुओं में उनके आचार की विधि की विवेचना की जा रही है। वह इस प्रकार है -
हेमन्त-ऋतु में साधु प्रायः वस्त्रों का त्याग करे। अल्प निद्रा एवं अल्प आहार ले। कभी भी तेल का मर्दन न करे और न ही बालों का गुच्छ, अर्थात् लंबे बाल रखे। शीत के निवारणार्थ रुई की शय्या पर शयन न करे और न ही अग्नि का प्रयोग करे। जिनसे रस उत्पन्न हो ऐसे गर्म, तीक्ष्ण (तीखे), खट्टे एवं मधुर आहार की इच्छा नहीं रखे। अन्य जीव निकाय का संस्पर्श न करे और न ही जूते पहने। शीतल जल अर्थात् कच्चा पानी (अप्रासुक जल) न पीए और शान्त भाव से आहार करे। पशुओं के समान क्रीडा करने वाली वेश्याओं के घर में प्रवेश न करे। नारी, नपुंसक आदि का कभी भी साथ न करे। न उष्ण जल आदि से स्नान करे, न प्रकटित दीपक को बुझाए। जो स्थान ऊपर से आच्छादित न हो, वहाँ शयन न करे। ऊनी वस्त्र (कामली) के बिना भ्रमण अर्थात् विहार न करे, मूत्र, थूक आदि को रखे नहीं, तत्काल ही परठ दे। पात्र एवं मात्रक में, पवित्र देह या पवित्र भूमि पर, नख के अन्दर कभी भी थोड़ा सा भी मैल न डाले। देह एवं संयम की रक्षा के लिए कम्बल आदि रखे। सूती वस्त्र से युक्त करके ही कम्बल का प्रयोग करे, वस्त्र के बिना कम्बल का प्रयोग न करे, अथवा वस्त्रधारी ही कम्बल रखे, वस्त्ररहित साधु कम्बल न रखे। मार्गशीर्ष से लेकर आषाढ़ तक प्रत्येक मास में विहार करता रहे, एक स्थान पर रहना उसके लिए उचित नहीं है। सदा एक स्थान पर रहने से राग, द्वेष, धन एवं स्थान का परिग्रह, अनादर का भाव और सुखासक्ति आदि अनेक दोष संभव होते हैं, अतः एक मास, एक ऋतु अर्थात् दो मास; दो ऋतु अर्थात् चातुर्मास; तीन ऋतु अर्थात् छः मास (अयन); या वर्षा के अन्त में मुनियों के लिए विहार करना उचित हैं। मास के अन्त में, दो या तीन ऋतुओं के व्यतीत
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