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आचारदिनकर (भाग-२) 164 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान
उपकक्षिका - दाईं तरफ पहना जाने वाला वस्त्र उपकक्षिका (दाईं ओर से बाईं ओर लेकर दाएँ कंधे पर बांधा जाता है।)
वैकक्षिका - कंचुक और उपकक्षिका को आच्छादित करते हुए पहना जाता है।
संघाटी (चादर) - संघाटी चार प्रकार की होती हैं। दो हाथ परिमाण की संघाटी उपाश्रय में ओढ़ने के लिए होती है। यह चौड़ाई में पादपोंछन जितनी होती है। दो संघाटी (चादर) तीन हाथ की होती है - एक ग्राम में भिक्षा के लिए, दूसरी स्थण्डिल के लिए जाते समय
ओढ़ी जाती है। चार हाथ की चादर उचित अवसर अर्थात् प्रवचनसभा, स्नात्रपूजा आदि के अवसर पर उपयोग की जाती है। चादर कोमल वस्त्र की बनी हुई होनी चाहिए।
स्कंधकरणी - चार हाथ लंबी होती है। यह वायुजन्य पीड़ा से रक्षा करने में उपयोगी है, साथ ही रूपवती साध्वी की शील-रक्षा हेतु उसे कुब्जा दिखाने में भी यह उपयोगी है, अतः इसे कुब्जकरणी भी कहते हैं।
ये साधु-साध्वियों के उपकरण हैं। मुनियों द्वारा दण्ड नामक उपकरण बाहर जाते समय पशु, सर्प आदि के निवारण के लिए रखा जाता है और वे साधु और साध्वियों के लिए पाँच प्रकार के होते हैं
१. सहज भूमि में स्कन्ध तक का २. ग्लान के आलम्बन के लिए ढाई हाथ परिमाण का ३. जल में, अर्थात् नदी को पार करते समय संपूर्ण शरीर के परिमाण से आधा हाथ अधिक ४. वर्षाकाल में कीचड़वाली भूमि में मोटा एवं देह-परिमाण का तथा ५. मार्ग में चलते समय स्कन्ध तक का एवं मजबूत दण्ड होना चाहिए। वह दण्ड १. वंश २. श्रीपर्णी ३. वटवृक्ष ४. क्षीरवृक्ष (बड़, पीपल, गूलर) या सादी लकड़ी से निर्मित, जैसा मिले वैसा रखना चाहिए। ब्रह्मचारी, क्षुल्लक एवं प्रथम उपनीत को काय-परिमाण का और पलाश या चन्दन से निर्मित दण्ड रखना चाहिए। व्रत विशेष के समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों को बिल्ब या उदुम्बर आदि के काष्ठ से निर्मित, अथवा उस समय लोक में जैसा प्रचलित हो, वैसा दण्ड लेना चाहिए।
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