Book Title: Jain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 206
________________ आचारदिनकर (भाग-२) 163 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान वे एकाकी ही विचरण करते हैं, गच्छ में नहीं रहते हैं - इस प्रकार यह प्रत्येकबुद्धों के उपकरणों की स्थिति है। साध्वी के उपकरण इस प्रकार से हैं : स्थविरकल्पी साधु के चौदह उपकरण तो साध्वियों के भी होते हैं। इनके अतिरिक्त ग्यारह उपकरण और होते हैं, वे इस प्रकार हैं - १. अवग्रहानन्तक २. पट्टक ३. अर्धारूक ४. चलनिका ५. अभ्यंतर निर्वसणी ६. बर्हिर्निर्वसणी ७. कंचुक ८. उपकक्षिका ६. वैकक्षिका १०. संघाटी एवं ११. स्कंधकरण - इस प्रकार पूर्व की चौदह उपधि मिलाकर साध्वियों के कुल पच्चीस प्रकार की ओघ उपधि होती हैं। अब उनके उपयोग बताए जा रहे हैं : अवग्रहणान्तक - यह गुप्तांग के रक्षणार्थ होता है। मोटे वस्त्र से निर्मित इस वस्त्र को देह से स्पर्श करते हुए अच्छी तरह बांधा जाता है। यह गुप्तांग के परिमाणानुसार बनाना चाहिए। पट्टक - देह-परिमाण के अनुसार होता है तथा एक होता है। कमर पर कमरपट्ट बाँधने पर पहलवान के कच्छे सा आकार बनता अर्धोरूक - अ|रूक का उपयोग भी पट्ट के समान ही है। पट्ट एवं अर्धारूक - दोनों मिलाकर कटि का आच्छादन करते हैं। चलनी - यह बिना सिला हुआ वस्त्र होता है, जो जानु परिमाण लम्बा होता है। __ आभ्यन्तरी (अन्तर्निर्वसनी) - यह कमर से लेकर अर्द्ध जंघा तक पहनी जाती है। बहिर्निर्वसनी - बहिर्निर्वसनी कमर पर डोरे से बांधी हुई होती है एवं टखनों तक लंबी होती है। कंचुक - बिना सिला हुआ तथा स्तनों को ढकने वाला वस्त्र . कंचुक कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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