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आचारदिनकर (भाग-२)
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान अब साधुओं के उपकरणों की उपयोगिता बताते हैं, वह इस प्रकार है :
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रजोहरण :- वस्तु को लेते या रखते समय, स्थान पर बैठने या सोने से पूर्व प्रमार्जन करने के लिए रजोहरण का उपयोग किया जाता है । यह रजोहरण की उपयोगिता है ।
मुखवस्त्रिका - मुखवस्त्रिका का उपयोग निरन्तर सूक्ष्म जीव के निवारण के लिए अर्थात् उनकी रक्षा हेतु तथा त्रस ( सचित्त) रज आदि के प्रमार्जन के लिए होता है । मुखवस्त्रिका से मुख आच्छादित होने के कारण नाक और मुँह की गर्म वायु से सूक्ष्म जीवों का नाश नहीं होता है । प्रमार्जन करते समय मुनि उसे कर्ण के सहारे बांधकर नाक और मुँह को ढकें यह मुखवस्त्रिका की उपयोगिता है ।
पात्र पात्र का ग्रहण भूमिपट्ट एवं वस्त्र आदि के जीवों की रक्षा के लिए एवं भोजन को संलीन अर्थात् गुप्त रखने हेतु किया जाता है । जिस प्रकार संभोग से एक के साथ व्यवहार करने में एक स्थान में ही तल्लीनता होती है, उसी प्रकार पात्र में गृहीत भोज्य आहार- पानी को फैलाकर और पर की उपेक्षा करके एक चित्त से देखा जा सकता है यह पात्र की उपयोगिता है ।
शेष पात्र उपधि पात्रों की शेष उपधियों का ग्रहण पात्रों की रक्षा के लिए किया जाता है।
कल्प तीन कल्प (वस्त्रों) का ग्रहण, दावानल, जल, वायु के निवारणार्थ, शुक्लध्यान, धर्मध्यान, ग्लान की समाधि के लिए तथा मृत्यु के समय मृतदेह पर आच्छादन अर्थात् उसे ढंकने के लिए किया जाता है - यह कल्प की उपयोगिता है ।
चोलपट्टे का ग्रहण पुरुष वेदोदय के कारण होने वाले लिंगोत्थान के आवरण हेतु, दीर्घ लिंगियों एवं लिंग रोगियों की लोक लज्जा के निवारणार्थ किया जाता है यह चोलपट्टे की उपयोगिता है । पात्रक की उपयोगिता पूर्व में कहे गए अनुसार ही है । यहाँ कमठ शब्द का तात्पर्य कुछ लोग चोलपट्टा मानते हैं, तो कुछ लोग संस्तारक अथवा उत्तरपट्ट मानते हैं ।
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