________________
आचारदिनकर ( भाग - २ )
159
1
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान होते हैं । ग्रीष्म ऋतु में उत्कृष्ट स्वरूप वाले पाँच, मध्यम स्वरूप वाले चार और जघन्य स्वरूप वाले पाँच पटल पर्याप्त होते हैं । वर्षा ऋतु में उत्कृष्ट स्वरूप वाले पाँच, मध्यम स्वरूप वाले छः और जघन्य स्वरूप वाले सात पटल पर्याप्त होते हैं । हेमन्त ऋतु में उत्कृष्ट स्वरूप वाले चार, मध्यम स्वरूप वाले पाँच और जघन्य स्वरूप वाले छः पटल पर्याप्त होते हैं। पटल मजबूत, मोटे और स्निग्ध वस्त्र के होने चाहिए । ( यहा उत्कृट स्वरूप का तात्पर्य मजबूत, मोटे और स्निग्ध वस्त्र से निर्मित पटल से है, मध्यम स्वरूप का तात्पर्य कुछ जीर्ण वस्त्र के पटल से है तथा जघन्य स्वरूप का तात्पर्य जीर्ण वस्त्र के पटल से है ।)
रजस्राण पात्र के परिमाणानुसार होता है, उससे अधिक परिमाण का नहीं, अर्थात् प्रदक्षिणाकार से पात्रों को वेष्टित करने पर चार अंगुल प्रमाण वस्त्र का छोर लटकता रहे इस प्रकार का होना चाहिए ।
कल्प, अर्थात् ओढ़ने की चादर - साधु के शरीर परिमाण, अर्थात् साढ़े तीन हाथ लम्बी और ढाई हाथ चौड़ी होती है। उनमें से दो चादर सूती और एक ऊनी कामली होती है ।
—
रजोहरण बत्तीस अंगुल परिमाण का होना चाहिए। इसमें चौबीस अंगुल परिमाण का दण्ड एवं आठ अंगुल परिमाण दसियाँ होती हैं । दण्ड या दसियाँ परिमाण में न्यूनाधिक भी हो सकती हैं। मुनि के शरीर परिमाण से, या गच्छाचार के कारण भी इसका परिमाण कम-अधिक होता है । पूर्व में निषद्या कम्बल के खण्डरूप होता था तथा दसियाँ आसन की होती थी, किन्तु वर्तमान में तो प्रसाधन को दृढ़ीभूत करने के लिए तथा धर्मोपकरण को सुन्दर बनाने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की ऊन के निषद्या होते हैं। इस हेतु आगम में तो कहा गया है - " जो निज देह को भूषित करता है, वह अनंत संसारी होता है। जिनधर्म में श्रद्धा रखने वाले साधुओं के लिए तो उपकरण ही भूषण रूप हैं ।" रजोहरण में दसी वाला भाग छोड़कर शेष डण्डी का भाग ऊन के दो निषद्या से आच्छादित होता है। पूरी डण्डी वस्त्र से आच्छादित होने के कारण निरवद्य होती है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org