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आचारदिनकर (भाग-२)
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान // अट्ठाईसवाँ उदय // प्रवर्तिनीपदस्थापना-विधि
यहाँ कुछ आचार्य प्रवर्तिनीपद एवं महत्तरापद की विधि एक ही बताते हैं, जबकि कुछ आचार्य इसकी विधि अलग बताते हैं। सर्व गच्छों के आचार्यों और उपाध्यायों की सम्मति से यहाँ इसको एक अलग विधि के रूप में विवेचित किया जा रहा है। प्रवर्तिनीपद के योग्य साध्वी के लक्षण इस प्रकार हैं - इन्द्रियों को जीतने वाली हो, विनीता (विनयवान्) हो, कृतयोगिनी हो, आगम को धारण करने वाली हो, मधुरभाषी हो, स्पष्टवक्ता हो, करुणामयी हो, धर्मोपदेश में सदा निरत रहने वाली हो, गुरु एवं गच्छ के प्रति स्नेहशील हो, शान्त हो, विशुद्धशील वाली हो, क्षमावान् हो, अत्यन्त निर्मल हो, अनासक्त हो, लिखने आदि के कार्यों में सतत् उद्यमशील हो, धर्मध्वज (रजोहरण)
आदि उपधि बनाने में सक्षम हो, विशुद्ध कुल में उत्पन्न एवं सदा स्वाध्याय करने वाली हो - ऐसी साध्वी को सदैव प्रवर्तिनी पद के लिए योग्य माना जाता है - ये प्रवर्तिनी पद के योग्य साध्वी के लक्षण
हैं।
प्रवर्तिनीपद-स्थापना की विधि निम्नानुसार है -
उपर्युक्त गुणों से युक्त साध्वी, जिसने लोच तथा अल्पप्रासुक जल से स्नान किया हुआ है, के प्रवर्तिनी पद-ग्रहण करने की विधि श्रावकजन बड़े महोत्सवपूर्वक करे। सर्वप्रथम समवसरण की स्थापना करे। प्रवर्तिनी पूर्व की भाँति ही समवसरण की तीन प्रदक्षिणा करे। फिर सदश, बिना सिले हुए वस्त्रों, रजोहरण एवं मुखवस्त्रिका को धारण किए हुए वह साध्वी खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन करके आसन पर विराजित गुरु से कहे - "आपकी इच्छा हो, तो आप मुझे प्रवर्तिनीपद पर आरोपित करने के लिए नंदीक्रिया करने हेतु वासक्षेप करे एवं चैत्यवंदन कराएं।" फिर गुरु वर्द्धमानविद्या से अभिमंत्रित वासक्षेप करे। तत्पश्चात् गुरु और प्रवर्तिनी - दोनों वर्द्धमान स्तुति द्वारा चैत्यवंदन करें। श्रुतदेवता, शान्तिदेवता, क्षेत्रदेवता आदि के कायोत्सर्ग एवं स्तुति पूर्ववत् करे। फिर "प्रवर्तिनी पद आरोपणार्थ मैं
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