Book Title: Jain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 184
________________ 141 आचारदिनकर (भाग-२) जैनमुनि जीवन के विधि-विधान स्थित रहे - यह दसवीं प्रतिमा है। ग्यारहवीं प्रतिमा एक अहोरात्रि की. है। इसमें निर्जल दो उपवास करे तथा जिस प्रकार व्याघ्र के हाथ और पैर नीचे की तरफ होते हैं, उस तरह की स्थिति में रहे - यह ग्यारहवीं प्रतिमा है। बारहवीं प्रतिमा एक रात्रि की है। इसमें निर्जल तीन उपवास करे तथा निर्निमेष दृष्टिपूर्वक व्याघ्रांचित पाणिपाद की स्थिति में रहे - इस प्रकार यह यति की बारह प्रतिमाएँ हैं। सभी प्रतिमाओं में गच्छ का परित्याग करना आदि क्रियाएँ एक जैसी हैं। प्रत्येक प्रतिमा में आचरण की जो विशेषता बताई गई है, उसका आचरण उसी प्रकार करे। मुनि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का ज्ञाता होता है। प्राचीन काल में स्वस्थ मुनि प्रतिमा का वहन करते थे, वर्तमान में कष्ट सहन करने की दैहिक- सामर्थ्य कम होने से नहीं करते हैं। यति की बारह प्रतिमाओं में कुल दिनों की संख्या अट्ठाईस मास छब्बीस दिन है और तप की संख्या आठ सौ चालीस दत्ति, छब्बीस उपवास एवं अट्ठाईस एकभक्त है। आचार्य श्रीवर्धमानसूरि विरचित आचारदिनकर के यतिधर्म के उत्तरायण में प्रतिमोद्वहनकीर्तन नामक यह छब्बीसवाँ उदय पूर्ण होता ----००-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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