Book Title: Jain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 182
________________ तथा शनिवार छून, चर तथा सामान्य चर्या है।लए आवश्यक है। आचारदिनकर (भाग-२) 139 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान आहार-पानी लेने वाला - ऐसा शुद्धात्मा मुनि प्रतिमोद्वहन के योग्य होता है। प्रतिमाओं के उद्वहन की विधि इस प्रकार है - सम्पूर्ण गच्छ का परित्याग करे और साधुओं में, पुस्तकों में, पात्रों में, वस्त्रों में और वसति में भी ममत्व न रखे। नीरस भोजन ग्रहण करे, वन में रहे, वज्रपात होने पर भी क्षुभित न हो, अटवी में भी निर्भय रहे, निजदेह के प्रति भी निर्ममत्व का भाव रखे, कष्टों में भी सुखपूर्वक रहे, माघ मास की शीत में प्रकम्पित न हो एवं ताप तपे नहीं, अर्थात् आतापना न ले, ग्रीष्मकाल में आतापना ले। शरीर को काटने, फाड़ने पर भी देह के प्रति मूर्छा न रखे और न ही क्रोध करे। चक्रवर्ती की ऋद्धि देखने पर भी विस्मय न करे, हास्यादि षट्दोषों का त्याग करे, सभी बाह्य स्थितियों में ममत्व न रखे इत्यादि - ये योग्यताएँ सभी प्रतिमाओं के उद्वहन के लिए आवश्यक हैं। यह सभी प्रतिमाओं के उद्वहन की सामान्य चर्या है। मृदु, ध्रुव, चर तथा क्षिप्र नक्षत्रों को छोड़कर एवं मंगलवार तथा शनिवार को छोड़कर अन्य सभी नक्षत्र प्रथम बार गोचरी, तप, नंदी एवं लोच करने हेतु शुभ कहे गए हैं। साधक अपने चंद्रबल में प्रतिमा वहन का प्रारम्भ करे। सभी प्रतिमाओं की चर्या यही है। प्रथम प्रतिमा एक मास की है। उसका एक मास तक वहन करे। वन में रहकर साधु एक मास तक हमेशा कायोत्सर्ग में रहे। कायोत्सर्ग में किसी भी प्रकार का सांसारिक चिन्तन न करते हुए प्रतिमा का वहन करे। भोजन हेतु एकदत्ति पानी की या एकदत्ति आहार की ग्रहण करे, अर्थात् किसी दिन पानी की एक दत्ति ग्रहण करे और किसी दिन भोजन की एकदत्ति ग्रहण करे। किसी दिन दत्ति की विधि से प्राप्त पानी से ही पूरा दिन व्यतीत करे और किसी दिन दत्ति की विधि से प्राप्त भोजन मात्र से ही पूरा दिन व्यतीत करे तथा इन दोनों के ही प्राप्त न होने पर संतोष धारण करे - यह प्रथम एक मासिक प्रतिमा की उद्वहन विधि है। दूसरी दो मास की प्रतिमा का वहन भी इसी विधि से करे। इसमें दो मास तक दो दत्ति ग्रहण करे, अर्थात् एक दत्ति पानी की और एक दत्ति भोजन की। उसी प्रकार तीसरी त्रैमासिकी प्रतिमा है - इसमें तीन मास तक तीन-तीन दत्ति ली जाती हैं, अर्थात् दो दत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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