Book Title: Jain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 191
________________ आचारदिनकर (भाग-२) 148 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान नामकरण करे। फिर “आर्यचंदनबाला एवं मृगावती के सदृश बनें"ऐसा आशीर्वाद तथा आवश्यक निर्देश दे। वह निर्देश इस प्रकार है - हे वत्सा ! साध्वियों को दीक्षा देना, गृहस्थों को व्रतों की अनुज्ञा देना, साधु एवं साध्वियों को अनुशासित करने, श्राविका वर्ग द्वारा द्वादशावतसहित वंदन करवाने इत्यादि कार्य समय पर यथाविधि तुम कर सकती हो, परन्तु तुम्हें मुनिदीक्षा देने एवं प्रतिष्ठा कराने की अनुज्ञा नहीं है।" इस प्रकार गुरु द्वारा अनुशासित महत्तरा गुरु को वंदन करके गुरु से आयम्बिल के प्रत्याख्यान ले। तत्पश्चात् साध्वियाँ श्रावक एवं श्राविका वर्ग महत्तरा को वंदन करते हैं। श्राविकाएँ द्वादशावतपूर्वक वन्दन करती हैं। अन्त में महत्तरा धर्मोपदेश देती है। अन्य सभी गच्छों में तो पूर्व में दीक्षित अधिक संयम पर्याय वाली अथवा वृद्धा साध्वियों को ही महत्तरापद देते है, परन्तु हमारे (ग्रन्थकार के) गच्छ में तो कम दीक्षा पर्याय और तरुणावस्था वाली साध्वी को भी महत्तरापद देने की परम्परा है। महत्तरा साध्वियों को प्रवर्तिनीपद प्रदान कर सकती है, परन्तु महत्तरापद प्रदान नहीं कर सकती है। पूर्व के उदय में कही गई विधि के अनुसार प्रवर्तिनीपद के समय भी कंधे पर कम्बली डालना, आसन देना, वर्द्धमानविद्या एवं उसका पटदान करना - ये सब कार्य महत्तरा के लिए वर्जनीय है, ये सभी कार्य आचार्य ही करते हैं। आचार्य वर्द्धमानसूरिविरचित “आचारदिनकर" में यतिधर्म के उत्तरायण में महत्तरा पदस्थापना कीर्तन नामक यह उनतीसवाँ उदय समाप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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