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आचारदिनकर (भाग-२)
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान लिए वासक्षेप करे एवं चैत्यवंदन कराएं।" तत्पश्चात् गुरु (आचार्य)
और वह साध्वी वर्द्धमान- स्तुतियों द्वारा चैत्यवंदन करे। भावी महत्तरा गुरु के बाईं तरफ बैठती है। श्रुतदेवता, शान्तिदेवता आदि का कायोत्सर्ग करना एवं स्तुति बोलना आदि सब कार्य पूर्व वर्णित आचार्य पद-विधि की भाँति ही करे। पुनः शक्रस्तव एवं अर्हणादिस्तोत्र बोले। फिर “महत्तरा पद के अनुज्ञार्थ मैं कायोत्सर्ग करती हूँ" - ऐसा कहकर अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे तथा कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट में चतुर्विंशतिस्तव बोले। यह क्रिया गुरु और महत्तरा - दोनों करते हैं। तत्पश्चात् सीधे खड़े होकर गुरु तीन बार नमस्कार मंत्र बोलकर लघुनंदी का पाठ बोलते हैं। उसके बाद- "इसे पुनः पढ़ाने के लिए अमुक महत्तरा की अनुज्ञा नंदी होती है" - यह कहकर गुरु महत्तरा के सिर पर वासक्षेप डाले। फिर गुरु बैठकर पाँच मुद्राओं - परमेष्ठीमुद्रा, सौभाग्यमुद्रा, गरूड़मुद्रा, मुद्गरमुद्रा एवं कामधेनुमुद्रा से वासक्षेप (गन्धचूर्ण) को अभिमंत्रित करे तथा संघ को वासक्षेप दे। तत्पश्चात् महत्तरा खमासमणासूत्र से वंदन करके कहे- “आपकी इच्छा हो, तो आप मुझे महत्तरापद की अनुज्ञा दें।" गुरु कहे - "मैं अनुज्ञा देता हूँ।" तत्पश्चात् खमासमणासूत्रपूर्वक छ: बार वंदन करना आदि सब क्रियाएँ पूर्ववत् ही करे। यहाँ इतना विशेष है कि पाँचवीं बार खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन करके महत्तरा समवसरण की तीन प्रदक्षिणा दे। फिर छठवीं बार खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन करके -“आपकी अनुज्ञा से आपके द्वारा जो प्रवेदित किया गया है, उसको साधु-साध्वियों को बताने के लिए तथा महत्तरापद की अनुज्ञा के लिए मैं कायोत्सर्ग करती हूँ"- ऐसा कहकर अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे तथा कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट रूप में चतुर्विंशतिस्तव बोलें। लग्न-वेला के आने पर गुरु (आचार्य) महत्तरा के कन्धे पर कम्बली रखे और उसके हाथ में आसन दे। तत्पश्चात् उसी लग्न-वेला में गुरु गन्ध, पुष्प एवं अक्षत द्वारा पूजित महत्तरा के दाएँ कान में परम्परागत संपूर्ण वर्द्धमानविद्या तीन बार बोले और चौथी बार पूजा के लिए वर्द्धमान विद्यापट दे तथा “अमुक साध्वी को महत्तरापद प्रदान किया गया"- यह कहकर
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