Book Title: Jain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 183
________________ आचारदिनकर (भाग-२) 140 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान भोजन की और एक दत्ति पानी की या दो दत्ति पानी की और एक दत्ति आहार की ग्रहण करे। चौथी चातुर्मासिकी प्रतिमा है - इस प्रतिमा का चार मास तक वहन किया जाता है। इसमें चार दत्ति होती हैं - दो दत्ति पानी की और दो दत्ति भोजन की। पाँचवी प्रतिमा पाँच मास की है। पाँच मास तक उसका भी इसी प्रकार से वहन करे। इसमें आहार-पानी की पाँच दत्ति ग्रहण की जाती हैं - तीन भोजन की और दो पानी की या दो भोजन की और तीन पानी की। छठवीं प्रतिमा छः मास की होती है। छः मास तक उसका भी इसी प्रकार से वहन करे। इसमें छ: दत्ति ग्रहण की जाती हैं - तीन भोजन की और तीन पानी की। सातवीं प्रतिमा सप्तमासिक होती है। इसे पूर्ववत् सात मास तक वहन करे। इसमें आहार-पानी की सात दत्ति ग्रहण की जाती हैं - तीन भोजन की एवं चार पानी की, अथवा चार भोजन की और तीन पानी की। इन सातों ही प्रतिमाओं में निश्चित दत्तियों का ही ग्रहण करे। प्राणान्त की स्थिति में भी अधिक दत्तियों का ग्रहण न करे। उक्त दत्तियाँ प्राप्त न होने पर संतोष धारण करे। इस प्रकार ये सात प्रतिमाएँ हैं। व आठवीं प्रतिमा सात अहोरात्रि की होती है। प्रथम दिन एकभक्त करे, दूसरे दिन निर्जल उपवास करे, तीसरे तीन एकभक्त करे, चौथे दिन निर्जल उपवास करे, पाँचवें दिन एकभक्त करे, छटें दिन निर्जल उपवास करे, सातवें दिन एकभक्त करे। इस प्रकार तीन दिन उपवास और चार एकासने के तप से यह प्रतिमा पूर्ण होती है। इस प्रतिमा के एकभक्त में भी जिसे कोई खाना न चाहे, ऐसे अति नीरस आहार को ग्रहण करे। सभी परिषहों को सहन करे, कायोत्सर्ग आसन में खड़े होकर दृढ़तापूर्वक सप्त अहोरात्रि की प्रतिमा का वहन करे। भिक्षा को छोड़कर हमेशा इस प्रतिमा में कायोत्सर्ग के साथ उत्थित्त आसन में रहे - यह आठवीं प्रतिमा है। ___ नवीं प्रतिमा भी सात अहोरात्रि की है। इसमें तपश्चर्या आठवी प्रतिमा की भाँति ही करे, किन्तु सात अहोरात्रि तक उत्कटिक आसन और दण्डासन में स्थित रहे - यह नवी प्रतिमा है। दसवीं प्रतिमा भी सात अहोरात्रि की है - इसमें तपश्चर्या तो आठवीं प्रतिमा की भाँति ही करे। इसमें हमेशा गोदुहिका, वीरासन एवं कुब्जकासन में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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