Book Title: Jain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 178
________________ आचारदिनकर (भाग-२) 135 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान फिर शिष्य-समान गण के अन्य मुनियों को हित शिक्षा देते हुए कहते हैं - "बोधि को प्राप्त तथा संसार को पार कराने वाले - ऐसे इन गुरु का त्याग तुम कभी भी मत करना। इनके प्रतिकूल आचरण कभी मत करना, सदैव अनुकूल ही आचरण करना, क्योंकि इसी से ही तुम्हारा यह गृहत्याग सफलीभूत होगा, अन्यथा तुम लोकबन्धु भगवान् की आज्ञा का लोप करने वाले बनोगे। उससे इसलोक और परलोक - दोनों लोकों में विडम्बना होगी और इससे “दुराचारी कुलवधू के न्यायानुसार" तुम्हारे कार्यों की निर्भत्सना होगी। तुम्हें जीवनपर्यन्त गुरु के पादमूल का कभी भी त्याग नहीं करना चाहिए। ये (नवीनाचार्य) निर्मल सदर्शन को प्राप्त ज्ञान के भाजन हैं। शास्त्र का वचन है - "जो सदैव गुरु की सेवा करता है, वह निष्प्रकप चारित्र वाला होता है।" तुम भी धन्य हो, जिन्होंने सब दुःखों को दूर करने वाले जिनवचनों को जान लिया है। तुम सदाकाल इन नवीनाचार्य के प्रति सम्यक् व्यवहार करना। यह समत्वयोग (साधु जीवन) अन्य योगों में सर्वश्रेष्ठ योग है। जो इसे प्राप्त कर लेता है, वह कैवल्य को प्राप्त करता है। संसार के प्राणियों के लिए यह केवलज्ञान की प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ हेतु है। संवेग आदि स्वभाव वाला होने से यह मोह पर विजय प्राप्त कराता है। लोकोत्तम श्रेष्ठ जिन द्वारा प्रतिपादित यह उत्तम मोक्षमार्ग है। लोक में उत्तम पुरुषों द्वारा सेवित यह उत्तम फल को प्रदान करने वाला है। जो लोग इसमें स्थिर हैं, वे धन्य हैं और वे भी धन्य हैं, जो इस मार्ग पर चलकर संसार-समुद्र को पार करते हैं। सम्यक्दर्शन आदि की साधना द्वारा संसार- सागर से पार होने वाले जन्म-मरण के दुःखों से भी पार हो जाते हैं। जन्म-मरण के दुःख से संकुल आत्मा को त्राण देने में असमर्थ, ऐसे इस भवचक्र से भयभीत जीवों को, जो केवलज्ञान प्राप्त करके दुःखों से त्राण दिलाता है, वह धन्य है। अज्ञान की बाह को पकड़ने वाले के समान दूसरा कोई शत्रु नहीं होता है। यह सम्यक् दर्शन आदि मोक्ष-मार्गरूपी भाववैद्य उनको भी इस बाह से छुड़ाता है। हे सम्यग्दर्शन ! तू निविड संसाररूपी दुःख से मुक्त कराने वाला भाववैद्य है। मैं प्रयत्नपूर्वक तेरी शरण को प्राप्त होता हूँ। हे सम्यग्दर्शन ! तू दूसरों का हित करने में सदैव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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