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आचारदिनकर (भाग-२)
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान में भी संध्याकाल की भाँति ही कालग्रहण करे। कालग्रहण में दो मुनि चाहिए - एक दण्डधर (दांडीधर), जो कालदण्ड को धारण करता है ; दूसरा क्रिया प्ररूपक (क्रिया करने वाला) कालग्रही।
यहाँ प्रारम्भ में प्रभातकालीन कालग्रहण की विधि का वर्णन किया गया है, अन्य दो कालों की कालग्रहण विधि भी इसी तरह ही है। प्रभातकाल में पश्चिम दिशा में स्थापनाचार्य को स्थापित करे। फिर कालग्रही दण्डधर को वामपार्श्व में करके दोनों कालमण्डल से आवस्सही-आवस्सही-आवस्सही, निस्सीही-निस्सीही-निस्सीही बोलकर दाएँ हाथ में रजोहरण एवं मुखवस्त्रिका को रखकर भूमि का प्रतिलेखन करते हुए स्थापनाचार्य के समीप जाएं। फिर वहाँ खमासमणासूत्र से स्थापनाचार्य को वंदन करके वे दोनों इस प्रकार कहें - "हे भगवन् ! आपकी इच्छा हो, तो प्रातःकालीन कालग्रहण की अनुज्ञा दें।" पुनः कालग्रही खमासमणासूत्र से वंदन करके कालदण्डी को स्थापनाचार्य के पास से लेकर उसे बाएँ हाथ से पकड़े फिर रजोहरण से उसका प्रतिलेखन करके परमेष्ठीमंत्र बोलकर उसे दण्डधर के हाथ में दे। फिर दोनों दाहिनी ओर मुड़े। फिर दण्डधर दिशा का अवलोकन करके “आवस्सही-आवस्सही-आवस्सही, निस्सीही-निस्सीहीनिस्सीही क्षमाक्षमण को नमस्कार"- यह कहकर स्थापनाचार्य के मण्डल (सीमाक्षेत्र) में आकर गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना के लिए आठ श्वासोश्वास परिमाण कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट में परमेष्ठीमंत्र बोले। फिर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके, द्वादशावर्त्तसहित वन्दन करके क्षमाक्षमण के प्रति उनकी अनुमतिपूर्वक कहे - "प्रभात काल का समय हो गया है, साधुजन सजग हों।" - यह कहकर दण्ड को लेकर "आवस्सही-आवस्सहीआवस्सही, निस्सीही-निस्सीही-निस्सीही" - कहकर दण्डधर कालग्रही के समीप आए और आकर पश्चिमाभिमुख होकर खड़ा रहे। फिर कालग्रही - “आवस्सही असज्ज-आवस्सही असज्ज-आवस्सही असज्ज, निस्सीही-निस्सीही-निस्सीही, क्षमाक्षमण को नमस्कार"- यह कहकर स्थापनाचार्य के मंडल में जाकर गमनागमन क्रिया के दोषों की आलोचना के लिए कायोत्सर्ग करे और कायोत्सर्ग में नमस्कारमंत्र का चिन्तन करे। कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट में परमेष्ठीमंत्र बोले। फिर
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