________________
आचारदिनकर (भाग - २)
103
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान दिन सभी प्रकीर्णकों के नामग्रहण पूर्वक उनके उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया करे । इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ तीन-तीन बार करे ।
कुछ लोग औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम एवं प्रज्ञापना उपांगसूत्र के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा हेतु तीन आयम्बिल एवं तीन कालग्रहण करने के लिए भी कहते हैं ऐसा अन्य आचार्यों का मत है, शेष कालिक - सिद्धान्त व्यवछिन्न हैं । कदाचित् उनमें से कुछ ( आंशिक रूप में) वर्तमान में उपलब्ध हों, तो उसके उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया वाचना के दिन कालग्रहण करके करे । यह प्रकीर्णकों के योग की विधि है ।
अब महानिशीथसूत्र के योग की विधि का विवेचन है। इस सूत्र में एक श्रुतस्कन्ध है । इसके योगोद्वहन की विधि निम्नांकित है :प्रथम दिन :- प्रथम दिन योगवाही आयम्बिल-तप, नंदीक्रिया एवं एक काल का ग्रहण करे तथा महानिशीथ श्रुतस्कन्ध के उद्देश की क्रिया करे। इसके साथ ही इसके प्रथम अध्ययन के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया भी करे । इसकी क्रियाविधि में योगवाही चार बार मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करे, चार बार द्वादशावर्त्तवंदन करे, चार बार खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करे एवं चार बार कायोत्सर्ग करे ।
1
द्वितीय दिन : द्वितीय दिन योगवाही आयम्बिल - तप एवं एक काल का ग्रहण करे तथा द्वितीय अध्ययन के उद्देश की क्रिया करे । इसके साथ ही द्वितीय अध्ययन के प्रथम एवं द्वितीय उद्देशक के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया करे । इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ सात-सात बार करे ।
तृतीय दिन :- तीसरे दिन योगवाही आयम्बिल - तप एवं एक काल का ग्रहण करे तथा तीसरे और चौथे उद्देशक के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया करे । इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ छः-छः बार करे ।
चौथे दिन :- चौथे दिन योगवाही आयम्बिल - तप एवं एक काल का ग्रहण करे तथा पाँचवें और छटें उद्देशक के उद्देश, समुद्देश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org