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आचारदिनकर (भाग-२) 121 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान अध्ययन में नौ उद्देशक, तीसरे एवं चौथे अध्ययन में सोलह, पाँचवें अध्ययन में बारह, छटें अध्ययन में चार, सातवें अध्ययन में छः तथा आठवें अध्ययन में बीस उद्देशक हैं। महानिशीथ सूत्र के आठ अध्ययनों में कुल तियासी (८३) उद्देशक हैं।
इस प्रकार पंचम अंग विवाहप्रज्ञप्ति के योग में सतहत्तर (७७) दिन और सतहत्तर कालग्रहण करके पूर्ण करते हैं। शेष एक सौ नौ दिन सूत्र की वाचना आदि काल ग्रहण, वन्दन, खमासमणा, कायोत्सर्ग आदि क्रिया के बिना ही होती है, अर्थात् उक्तमान संघट्ट, नीवि के प्रत्याख्यान होते हैं, किन्तु मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना, द्वादशावर्त आदि क्रियाओं के बिना ही वाचन करते है। गोशालशतक में अष्टमी एवं चतुर्दशी के दिन आयम्बिल करे तथा शेष दिनों में नीवि करे। इस प्रकार छः मास तथा छः दिन तक (१८६ दिन तक) क्रियाविधि करे। उनचास दिन के बाद एक सौ छियासी दिनों तक
आयुक्तपानक का ग्रहण करे। भगवती के योग में सभी जगह एक सौ छियासी दिन का ही उल्लेख मिलता है। कालिकसूत्र के योगों में संघट्ट निश्चित रूप से होता है। यह भगवतीसूत्र के गणियोग की विधि है। इसमें छः मास छः दिन, अर्थात् एक सौ छियासी दिन, सतहत्तर कालग्रहण एवं दो बार नंदीक्रिया होती है। यह कालिक-आगाढ़ योग है। यहाँ सभी योगों में अध्ययन, वर्ग या शतक के उद्देश, समुद्देश के बाद उनके अध्ययनों या उद्देशकों के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया की जाती है।
यह विधि हमारे पूर्व गुरु सिद्धान्तसागर के पारगामी पूज्यपाद श्रीजगतिलकसूरि के उद्देश के आधार पर बताई गई है, हमारी समाचारी एवं गुरु-परम्परा में उद्देशकों एवं अध्ययनों की अनुज्ञा के बाद ही वर्ग, अध्ययन एवं शतक आदि की अनुज्ञा दी जाती है। उत्तम स्याद्वाद सिद्धांत पर आधारित जिनमत में दोनों में ही कोई दोष नहीं है, अतः अपने गुरु के संप्रदाय की विधि को प्रमाण मानकर उसके अनुसार क्रिया करना चाहिए। योगोद्वहन करते समय क्षय और वृद्धि तिथि में उदय की तिथि ही ग्राह्य होती है। संघट्ट उक्तमान, कालग्रहण, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि क्रिया का भंग होने पर, योगोद्वहन के बीच रोग उत्पन्न होने पर, अकाल में मल का उत्सर्ग
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