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आचारदिनकर (भाग - २)
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जैनमुनि जीवन के विधि-विधान
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तेरहवें, चौदहवें और पन्द्रहवें इन तीन शतकों में दस-दस उद्देशक हैं। पन्द्रहवें शतक में एक भी उद्देशक नहीं है, मात्र पूरा एक ही शतक है, इसका तात्पर्य यह है कि आठ शतकों में क्रमशः दस-दस उद्देशक हैं। दूसरे शतक के प्रथम उद्देशक में स्कंदक और तीसरे शतक के दूसरे उद्देशक में चमर का उल्लेख है। इसी प्रकार पन्द्रहवें शतक में गोशालक का उल्लेख है । इसमें पैंतीस दत्ति होती हैं, यह सब भक्त पान सहित होती हैं । “पारण दुगेण होई अनुनवण" पारणे में दत्ति की वृद्धि होती है, कभी नहीं होती है ( ? ) । स्कंध आदि उद्देशकों की विधि एवं अनुभाग का अब क्रमपूर्वक वर्णन है । तृतीय शतक के द्वितीय चरमेन्द्र नामक योग में षष्ठ योग होता है । इसके योग में उत्सर्ग-मार्ग में विगई का त्याग करना चाहिए । गोशालकशतक की अनुज्ञा के लिए अष्टमयोग होता है । सोलहवें शतक में चौदह उद्देशक हैं, सत्रहवें शतक में सत्रह उद्देशक हैं। अठारहवें, उन्नीसवें और बीसवें - इन तीनों शतकों में दस-दस उद्देशक हैं। इक्कीसवें शतक में अस्सी उद्देशक हैं। बाईसवें शतक में साठ उद्देशक हैं । तेईसवें शतक में पचास उद्देशक हैं। चौबीसवें शतक में चौबीस उद्देशक हैं । पच्चीसवें शतक में बारह उद्देशक हैं । छब्बीसवें शतक से लेकर तीस तक के पाँच शतकों में ग्यारह - ग्यारह उद्देशक हैं। एकतीसवें और बत्तीसवें शतक में अट्ठाईस अट्ठाईस उद्देशक हैं । तैंतीसवें और चौंतीसवें शतक में एक सौ चौबीस उद्देशक हैं। इसके पश्चात् पैंतीसवें शतक से लेकर उनचालीस तक के शतकों में एक सौ बत्तीस - एक सौ बत्तीस उद्देशक हैं । चालीसवें शतक में दो सौ एकतीस उद्देशक हैं । अन्तिम एकतालीसवें शतक में एक सौ छियानवें उद्देशक हैं । चमर उद्देशक की अनुज्ञा हेतु पन्द्रह दिन तक पन्द्रह काल का ग्रहण करे। इसके बाद षष्टम योग होता है। इसमें पाँच नीवि और छठें दिन आयम्बिल होता है। इस प्रकार भगवतीसूत्र के योग में चौदहवें शतक तक उनपचास दिन होते हैं, और उतने ही काल का ग्रहण होता है। तत्पश्चात् अष्टम योग होता है, जिसमें आठ दिन तक निरुद्ध (प्रत्याख्यान) करना होता है। वर्तमान समाचारी के अनुसार गोशालक शतक के योग में अष्टमी, चतुर्दशी के दिन आयम्बिल करते हैं । महानिशीथसूत्र के प्रथम अध्ययन में मात्र अध्ययन होता है, दूसरे
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