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आचारदिनकर (भाग-२)
102 जैनमुनि जीवन के विधि-विधा योग में उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा हेतु तीन आयम्बिल एवं तीन कालग्रहण किए जाते हैं।
___ उपासकदशांग के उपांग चंद्रप्रज्ञप्ति कालिकसूत्र के योग में उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा हेतु तीन आयम्बिल एवं तीन कालग्रहण किए जाते हैं। कालिक सूत्रों में ही संघट्ट होता है, उत्कालिक सूत्रों के योगों में संघट्ट नहीं होता है।
अन्तकृतदशांग से विपाक अंग के अंत तक के अंगों के उपांग रूप निरयावलिकासूत्र के योग की विधि पूर्व में बताई जा चुकी है। निरयावलिका उपांग के अतिरिक्त अन्य उपांग सूत्रों के योग में नंदीक्रिया नहीं होती है। निरयावलिका को छोड़कर सभी उपांगों की क्रिया में एक बार मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करे, एक बार खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करे, एक बार द्वादशावर्त्तवन्दन करे एवं एक बार कायोत्सर्ग करे। निरयावलिका सूत्र में पाँच वर्ग हैं - १. कल्पिका २. कल्पावंतसिका ३. पुष्पिका ४. पुष्पचूलिका एवं ५. बहिदशा।
.. १. औपपातिक २. राजप्रश्नीय ३. जीवाभिगम एवं ४. प्रज्ञापना - इन चार उपांगों के योग अन्य योग के मध्य में नीवि के दिन आयम्बिल करके उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा के द्वारा पूर्ण कर सकते हैं। उस दिन उसके निमित्त से बारह बार मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करे, बारह बार खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करे, बारह बार द्वादशावर्त्तवन्दन करे तथा बारह बार कायोत्सर्ग करे। १. नंदी २. अनुयोगद्वार ३. देवेन्द्रस्तव ४. तण्डुलवैकालिक (तंदुलवैचारिक) ५. चंदाविर्ध्वज (चंद्रवेध्यक) ६. आतुर- प्रत्याख्यान ७. गणिविद्या ८. कल्पाकल्प ६. क्षुल्लकल्पश्रुत १०. राजकल्पसूत्र ११. प्रमादाप्रमाद १२. पौरुषी-मंडल १३. विद्याचारव्यवच्छेद १४. आत्मविशुद्धि १५. मरण विशुद्धि १६. ध्यानविभक्ति. १७. मरणविभक्ति १८. संलेखनाश्रुत १६. वीतरागश्रुत २०. महाप्रत्याख्यान - प्रकीर्णकरूप . इन सब उत्कालिकसूत्रों के योग अन्य योग के मध्य नीवि के स्थान
पर आयम्बिल करके करे तथा एक ही दिन में उसके उद्देश, समुद्देश ___ एवं अनुज्ञा की क्रिया करे। इन सभी प्रकीर्णक सूत्रों के योग में उस
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